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ढूंढता रहा

ढूंढता रहा
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प्रभु ढूंढा
अनवरत तुमको,
जंगल, नदियां
पहाड़ों में।

शीत, ताप
छाया में ढूंढा,
वैराग्य और
माया में ढूंढा।
तृष्णा के
संधान सा ढूंढा,
झरनों की निर्मल
धारों में।

सुबह, शाम और
रात में ढूंढा,
इंद्रधनूषी
बरसात में ढूंढा।
योद्धा सा
रणभूमि में ढूंढा,
तीरों और
तलवारों में।

घर, बाहर
बाजार में ढूंढा,
गली, कूचे
संसार में ढूंढा।
हवाओं सा
टकराता ढूंढा,
दरख्तों और
दिवारों में।

हानि, लाभ
व्यापार में ढूंढा,
दुखी, पीड़ित
लाचार में ढूंढा।
भौंरों सा
मंडराता ढूंढा,
गुलों और
गुलजारों में।

नशे और
मांसाहार में ढूंढा,
कुकृत्यों और
कुविचार में ढूंढा।
अति भूखे
शेरों सा ढूंढा,
जानवरों के शिकारों में।

अंतर्मन में
जब झांका तो,
प्रेम की आंखों
से आंका तो।
स्पष्ट हुई
आकृति तुम्हारी,
मीठी धूप सी
जाड़ों में।।

अनिल सिंह बच्चू

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