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ध्वनि साधना : देवनागरी लिपि का दर्शन

ध्वनि साधना : देवनागरी लिपि का दर्शन

मेरे और मेरी पत्नी के बीच, भारतीय दर्शन पर बात चल रही थी। इसी बीच मेरी पत्नी ने बताया कि 1985 में जब मैंने एक शिक्षिका के तौर पर, नीदरलैंड के स्कूल में, काम करना शुरू किया तो उस समय मैं प्राथमिक शिक्षा के बच्चों को पढ़ाया करती थी। साथ ही साथ मैं उच्च शिक्षा के लिए भी अध्ययनरत थी।
हम उस समय प्राथमिक कक्षा के बच्चों को जीवन दर्शन की बातें भी बताया करते थे। यह सब पाठ्यक्रम का हिस्सा था। उन्हीं दिनों मेरी रुचि भारतीय दर्शन और विशेषतः बौद्ध दर्शन को जानने की हुई।
एक दिन, एक रेडियो पर आए हुए नादब्रह्म के दर्शन को मैंने टैप किया था। उस टेप को चलाकर, मैंने कक्षा के बच्चों को सुनाया।
मेरी कक्षा में एक बच्चा बहुत उदंडी था। मैं यह देख रही थी कि इस टेप को वह उदंडी बालक बहुत ध्यान से सुन रहा था। शेष विषयों को पढ़ते समय, उसने कभी इतना ध्यान पूर्वक किसी बात को नहीं सुना था। ज्ञान की बात, नादब्रह्म की बात को उसने बहुत ध्यान से सुना था।
जब नादब्रह्म का टेप पूरा हुआ तब मैंने उस बच्चे से पूछा कि तुम जीवन में क्या बनना चाहते हो ? तुम्हारी क्या इच्छा है, क्या मनसा है ? उस बच्चे ने कहा “मैं नदी बनना चाहता हूँ।”
उसका यह उत्तर सुनकर मैं हतप्रभ रह गई थी। यह बात सुनकर कुछ बच्चों का मुँह भी खुला रह गया था। यह उत्तर सुनकर मैंने उससे पूछा “नदी में आखिर ऐसा क्या है ?
उसने कहा “मैं जीवन में नदी की तरह बहना चाहता हूँ। मैं नदी का बहाव बनना चाहता हूँ।”
सामान्यतः हम माँ बाप बच्चे पर, डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना थोंप देते हैं। बच्चे की संवेदनाओं को इस बनने, बनाने के अपने विचार व्यूह से कुचल देते हैं।
आइये ! देवनागरी लिपि का दर्शन ध्वनि साधना की ओर बढ़ते हैं। ध्वनि साधना ही देवनागरी लिपि का दर्शन है। दर्शन ऐसा कुछ है जो देह में जीवन से बहुत वृहतर है। यही वृहतर व्योम या शून्य जीवन का स्रोत है।ऊर्जा और उसके प्रवाह का साक्षी भाव के साथ अनुभव ही दर्शन है। जिसे बुद्ध ने विपश्यना कहा है। विपश्य संस्कृत का एक शब्द है। विपश्य का अर्थ है जीवन को एक विशेष तरह से देखना। बुद्ध की विपश्यना ध्यान पद्धति भी इस विपश्य के अर्थ को चरितार्थ करती है। तैरना सीखना सा है देवनागरी लिपि का दार्शनिक पक्ष। तैरना सीखने के लिए आपको पानी के तालाब में उतरना पड़ेगा। केवल सोचने या विचार करने भर से तैरना न सीखा जा सकेगा।
आपने अपने घर में, अक्सर यह देखा होगा, सुना होगा कि जब भी कोई विशेष अवसर आता है तो हमारी मां, बहन, बेटी, पत्नी, विशेष अवसर के दो चार दिन पहले यह कहती है कि पंडित जी को तो बुलावा दे दो। घर में मंत्र उच्चारण हो जाएगा। घर में स्त्री की यह छोटी सी पहल आपको अपने जीवन की धुरी से जोड़ने की बात है। उनकी यह पहल समझने जैसी है। जीवन में दर्शन को समझने के लिए और नागरी लिपि के वर्णों के उच्चारण के समय, उसके दार्शनिक पक्ष को समझने के लिए हमें एक छोटे से उदाहरण का सहारा लेना होगा।
यह उदाहरण विपश्यना का ही एक तरीका है। विपश्य संस्कृत शब्द है। ‘पश्य’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग लगा है।
पश्य का अर्थ है देखना। विपश्य का अर्थ हुआ ‘विशेष रूप से देखना’।
आपने साइकिल के पहिए को देखा होगा। कार के पहिए को देखा होगा। यह साइकिल का पहिया परिधि पर बहुत दौड़ता है। बहुत भाग दौड़ करता है। इस भागदौड़ को हम मानव की वैचारिक मानसिकता का सांकेतिक रूप मान सकते हैं। इस पहिए की परिधि की दौड़ की भाँति, बाहरी तौर पर आपके वैचारिक और शारीरिक जीवन में बहुत बदलाव आए होंगे। आपके शरीर का आयतन और लंबाई भी बढ़ी होगी। आपके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी होंगी। आपके विचारों ने भी खूब कुलाचें खाई होंगी।
इस साइकिल के पहिए के बीच, पहिए की धुरी स्थित है। पहिए की धुरी अपनी जगह पर बनी रहती है। धुरी भाग दौड़ नहीं करती है। क्योंकि पहिए के जीवन को उसी ने थाम रखा है। साइकिल के पहिए की धुरी की भांति, मानव देह का भी अपना केंद्र है। एक तल है। यदि आप अपनी आयु से पीछे मुड़कर देखें तो आपको ज्ञात होगा। आप अनुभव करेंगे कि एक ऐसा केंद्र आपके जीवन में, आपकी देह में उपस्थित है जो बचपन में भी वैसा ही था युवावस्था में भी वैसा ही था यदि आप बुजुर्ग हो गए हो तो भी आपको लगता होगा कि आपके जीवन का केन्द्र ज्यों का त्यों है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। वही आपके जीवन की धुरी है।
दर्शन क्रिया को समझने के लिए आईए थोड़ा आगे बढ़ते हैं। जीवन दर्शन की दो टाँगे हैं। एक टाँग है स्वीकार भाव और दूसरी टाँग है साक्षी भाव। अब आप यह कहेंगे कि स्वीकार भाव क्या है और साक्षी भाव क्या है ? ये दोनों बातें बहुत समझने जैसी हैं। स्वीकार भाव और साक्षी भाव दोनों को ही मैं दो अलग-अलग उदाहरण देकर आपको समझाता हूँ।
स्वीकार भाव का उदाहरण
एक मनोवैज्ञानिक के मन में आत्मा और परमात्मा को समझना के बहुत सारे प्रश्न थे। उसने एक पहाड़ी पर रहने वाले संत के बारे में सुना था। एक दिन अपने सारे प्रश्नों को लेकर, वह उस संत से मिलने, ऊंची पहाड़ी पर जा पहुंचा। वह पहाड़ी की ऊंचाई तक पहुंचा तो वह हाँफ रहा था। वह बुड्ढा संत उस मनोवैज्ञानिक की शारीरिक और मानसिक दशा को देख रहा था।
हाँफते, हकलाते मनोवैज्ञानिक ने संत से कहा मेरे कुछ सवाल हैं। बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं। आत्मा और परमात्मा को लेकर सवाल हैं।
संत मनोवैज्ञानिक से बोला “तुम हाँफ रहे हो। बैठ जाओ। थोड़ा आराम कर लो। शांत हो जाओ। मैं तुम्हारे सवालों को भी सुनूंगा और जवाब भी दूँगा। पहले मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लाता हूँ।”
मनोवैज्ञानिक का शरीर तो हाँफने से शांत होने जा रहा था। उसकी साँस सामान्य होने लगी थी। लेकिन उसके मस्तिष्क में बहुत सारे प्रश्न थे। उसका मस्तिष्क शांत नहीं हो रहा था। स्वीकार भाव, उस मनोवैज्ञानिक के मन से नदारद था। वह संत थोड़ी देर में चाय बना कर ले आया। संत मनोवैज्ञानिक की मन:स्थिति को भाँप रहा था।
संत ने खाली तस्तरी और कप दोनों मनोवैज्ञानिक के हाथ में दे दिए। उसके बाद संत कप में चाय उंडेलने लगा। कप भरने को हो आया। कप भर भी गया। वह चाय को उंडलता ही रहा। चाय कप से उझलने लगी। मनोवैज्ञानिक ने सोचा संत को यह दिखाई क्यों नहीं दे रहा है कि कप उझल पड़ा है। संत रुका नहीं वह धीरे धीरे चाय उंडेलता रहा। जब तस्तरी भी चाय से भर कर उझलने को हुई तो मनोवैज्ञानिक ने मन में सोचा यह बूढ़ा आत्मा और परमात्मा के बारे में क्या बतायेगा ! उसने झट से कहा आपको दिख नहीं रहा ? आप चाय उंडेले जा रहे हैं। चाय तस्तरी से भी उझलने को है।
संत ने कहा कि श्रीमन अपने स्वंय के मन की दशा देखो। आप आत्मा और परमात्मा के बारे में जानना चाह रहे हो। यदि आपकी खोपड़ी यूँ ही विचारों से भरी रही तो मैं जो भी आत्मा परमात्मा के बारे में आपको बताऊँगा तो वह सब उझल जायेगा।
हम अपने परिवेश जनित व्यवहार को स्वीकार नहीं करते अपितु अपने मनस में बैर भाव, शत्रु भाव को स्थान दे देते हैं। इसी भाव के आसपास बनती प्रतिक्रिया को अपना अंतरंग संवाद बना लेते हैं। इस तरह हम विचारों के अनवरत प्रवाह का हिस्सा बन जाते हैं। यह समझ हमारे अहम का भोजन और पोषण बन जाता है। इसी कारण दुनियादारी में बहुत संकट हैं।

साक्षी भाव का उदाहरण
आओ अब साक्षी भाव की बात करते हैं।
यह उदाहरण महात्मा बुद्ध का है। एक बार ध्यान के बाद महात्मा बुद्ध की आंखें खुली तो उन्होंने एक युवक को सामने खड़ा हुआ देखा। युवक के चेहरे पर प्रश्न झलक रहे थे। बुद्ध ने उस युवक से कहा “आओ। पहले बैठो। बताओ, तुम्हारे सवाल बताओ। इस युवक ने कहा कि आप कौन हैं?
“बुद्ध।” महात्मा बुद्ध एक ही शब्द बोले।
युवक संशय में पड़ गया और बोला कुछ समय पहले तक आप सिद्धार्थ थे। अब ये नाम बदलाव ! अब आप बुद्ध हो गए हैं। यह मेरी समझ से बाहर है। आप थोड़ा सा खुलासा करो।
बुद्ध ने कहा “निश्चित रूप से एक व्यक्ति के रूप में मेरा नाम सिद्धार्थ था। लेकिन जब मेरे जीवन में रूपांतरण घटा। मेरे जीवन में रूपांतरण हुआ तो मैंने अपने आपको बुद्ध होना पाया। उसे युवक ने कहा वह क्या है ? रुपान्तरण क्या है ?
उन्होंने कहा कि बुद्ध ने कहा कि रुपान्तरण के स्वरूप को ऐसे समझो। जीवन में रुपान्तरण घटने के बाद अब जब भी मैं अपने आपको चलते हुए देखता हूँ। चलते हुए मेरा एक पैर धरती पर होता है और एक दूसरा पैर हवा में होता है। उस समय मुझे यह ज्ञात होता है कि मेरा कौन सा पैर हवा में है और कौन सा पैर धरती पर है। यह साक्षी भाव का सुंदरतम उदाहरण है।
जीवन दर्शन की स्वीकार भाव और साक्षी भाव रूपी इन दो टाँगों पर चलने से स्थितप्रज्ञ होने का पायदान खुल जाता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है अपनी प्रज्ञा में स्थित हो जाना। अपनी समझ या चेतना में स्थित हो जाना। वहाँ जीवन का झँझावात नहीं है। झँझावात केवल परिधि पर घटते हैं।
स्थितप्रज्ञ के पायदान पर, इस आसन पर बैठे बुद्ध, इस आसन पर नग्न खड़े महावीर, इस आसन पर नृत्य करती मीरा, इस आसन पर कलम के धनी तुलसी, इस आसन पर बेधड़क कबीर सब हैं। ऐसे नामों व बेनामियों की कतार बहुत लम्बी है। इसमें आप भी शामिल हो सकते हैं। यह कतार आपकी भी प्रतीक्षा कर रही है।
बात देवनागरी लिपि पर चल रही है। इसी क्रम में विज्ञान और दर्शन यह बात भी समझने जैसी है कि जहाँ विज्ञान की सीमाएँ समाप्त होती हैं, दर्शन की सीमा वहाँ से शुरू होती है। विज्ञान दर्शन के जगत को जानने का प्रयास, प्रयोगों के माध्यम से अवश्य कर रहा है। विज्ञान यह बताने में सफल अभी तक सफल नहीं हुआ है कि प्रेम पूर्वक पकड़े गये हाथ की संवेदनशीलता क्या है, अनुभूति क्या है ?
मानव देह में सात ऊर्जा चक्रों की बात भी आपने सुनी होगी। ये सात चक्र निम्न हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार चक्र। इन चक्रों को समझने के लिए ऑनलाइन भी देख लें। थोड़ा गूगल दादा से पूछ लें। नागरी लिपि के दर्शन को समझने के लिए मनुज देह में इन ऊर्जा चक्रों के स्थान भर को ध्यान रखना आवश्यक है।
प्रत्येक नागरी के वर्ण के ऊपर एक रेखा है। जिसे शिरो रेखा कहा गया है। मेरे देखे, यह नागरी के अक्षर की जीवन रेखा है। ध्वनि, ध्वनि के उच्चारण और उस उच्चारण से उपजी ऊर्जा का कागज पर और कम्प्यूटर के बोर्ड पर यही आधार है। यही वर्ण की जीवन रेखा है। यही उसका जीवन स्रोत है।
देवनागरी लिपि धवन्यात्मक है। जिन विद्वानों और ऋषियों ने देवनागरी लिपि का निर्माण किया। उन्होंने देह के तल पर, ध्वनि, उच्चारण और उस उच्चारण से उपजी ऊर्जा पर बहुत प्रयोग किए होंगे। उच्चारण, उच्चारण से उपजी ध्वनि, ध्वनि से उपजी ऊर्जा और देह में उस ऊर्जा यात्रा का अध्ययन किया होगा। इस यात्रा में वर्ण हैं। शब्द हैं। शब्द युग्म हैं। इन वर्णों, शब्दों और शब्द युग्मों के बीच शून्य है। ऊर्जा प्रवाह के बीच-बीच में अंतराल भी है। यह अंतराल वर्ण और शब्द का गर्भ है। यही अंतराल शून्य है। यह शून्य चैतन्य है। अक्षर का जन्म चैतन्य में होता है। यानि अक्षर कभी क्षर नहीं होता है। इसीलिए अक्षर को ब्रह्म और अक्षर के चैतन्य में जन्म लेने के कारण लिपि को देवनागरी लिपि कहा गया है।
ऋषियों ने हमें स्वस्थ जीवन और आनंदित जीवनशैली के लिए सुबह उठने, सूर्य नमस्कार और योग करने, आयुर्वेद का ज्ञान, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता (यानि कभी धरती से एक खुरपी से मिट्टी हटानी पड़े तो हमारा प्रयास हो कि उस मिट्टी को वापस उसी स्थान पर लगा दें), मंत्र यानि ध्वनि साधना और ध्वनि साधना का मूल देवनागरी लिपि सिखाई।
जैसा कि पहले बताया कि देवनागरी लिपि ध्वन्यात्मकत है। वर्ण व शब्द का उच्चारण, उच्चारण से उपजी ध्वनि, ध्वनि की ऊर्जा और इस प्रक्रिया में शब्दों के बीच आए अंतराल, शब्द में प्रयुक्त एक वर्ण से दूसरे वर्ण के बीच का अंतराल, यह सब व्यक्तिगत शोध का विषय है। देवनागरी लिपि के वर्ण व शब्द और शब्द युग्म के उच्चारण की ध्वनि से उपजी ऊर्जा यात्रा का अध्ययन ही स्वाध्याय है। यही सब ध्वनि साधना की कुञ्जी है। आप जितना गहराई में जाएंगे, आपके जीवन में रूपांतरण घटेगा। इस रूपांतरण से आपकी जीवन दृष्टि की नई दिशाएँ खुलेंगी।
इस रूपांतरण की बात को थोड़ा ठीक से समझें। इस राह को एक साधारण उदाहरण के माध्यम से समझें।
पानी के स्वाद के माध्यम से समझें।
यदि आप मुझसे पूछें की पानी का स्वाद कैसा है ? यदि मैं पानी का स्वाद बताने के लिए, अपने पूरे जीवन भर बोलता रहूँ तो कोई भी शब्द आपके सवाल का जवाब न दे सकेगा। यदि मैं आपसे कहूँ कि पानी को पी लो। आपको पानी के स्वाद का पता चल जायेगा। यह व्यक्तिगत स्तर पर घटेगा। ध्वनि साधना की राह भी बहुत व्यक्तिगत है। मंत्रोच्चारण के समय भी यही घटता है। समूह में साधना करना सदा सहयोगी बन जाता है। समूह की ऊर्जा आपको मंत्रोच्चारण के समय, ध्वनि साधना की यात्रा पर साथ ले लेती है। उस समय, आपका समूह के साथ समर्पण भाव, आपको ध्वनि साधना यात्रा पर साथ ले चलता है। होने को आप समूह में हैं लेकिन आप अकेले भी हैं। आप अपने जीवन की धुरी से जुड़े हैं। आपका वैचारिक तल परिधि पर छूट जाता है। आप खोपड़ी से एक पायदान नीचे उतर हृदय तल पर आ जाते हैं।
आपका हृदय तल सदा एक सा रहा है। आप अपनी जीवन अवस्था से पीछे मुड़कर देखेंगे तो पायेंगे कि आपके देह के तल पर बहुत बदलाव हुए हैं। वैचारिक तल पर बहुत यात्रा की है। इस सबके साथ आपका हृदय तल, आपके जीवन की धुरी सदा एक सी, निराली रही है।
हम देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक कहते हैं। यह बात ठीक है। लेकिन देवनागरी का अस्तित्व उसके दार्शनिक पक्ष में है। यह कदम वैज्ञानिकता के बाद का पायदान है। हम देवनागरी लिपि को परिधि पर वैज्ञानिक कह इतिश्री कर लेते हैं। उसके आगे देवनागरी की धुरी की ओर नहीं बढ़ते हैं।
टी एस इलियट को रेखांकित करना भी समीचीन है। वे संस्कृत का विद्वान भी था। उन्हें 1949 साहित्य नोबेल पुरस्कार मिला था। इलियट ने पाश्चात्य दार्शनिकों को भारतीय दार्शनिकों के समक्ष प्राथमिक पाठशाला के छात्र कहा है।
इलियट ने अपनी लम्बी कविता ‘द वेस्ट लैंड’ के अंत में शांति: , शांति: , शांति: लिखा है। मेरे देखे इलियट ने शब्द समूह या शब्द युग्म के बीच चैतन्य रूपी अंतराल, शून्य की समझ को अपनी कविता में शांति:, शांति:, शांति: कहा है।
एक बात और कि देह के तल पर मौन, परिवेश के तल पर शांति तथा अस्तित्व के तल पर शून्य। कहने को मौन और शांति शून्य की ही इकाई हैं। शून्य ही हैं। मौन, शांति और शून्य चैतन्य का ही विस्तार है। केवल नाम अलग अलग हैं। इस चैतन्य के विस्तार की परिधि पर सब घटता है। उच्चारण और संवाद भी।
ध्वनि साधना की बात को इटालियन विद्वान फिलिपो सास्सेती ने अपने दसवें पत्र में, ब्राह्मणों को ध्वनियों का संकलन कर्ता कहा है। उसने प्लिनी का उल्लेख भी किया है।
Lettere Indians पुस्तक के पृष्ठ 49 पर, पत्र क्रम 10 में, फिल्लिपो सास्सेती लिखते हैं “प्लिनी (इतालवी दार्शनिक) ने भी ब्राह्मणों के बारे में उल्लेख किया है। वह इन पूर्वी लोगों के व्यवहार के बारे में विस्तार से लिखता है। प्लिनी कहते हैं: ब्राह्मण, शब्दावली और ध्वनि के संकलन कर्ता हैं। वे अपनी भाषा, संस्कृत में, बहुत निपुण हैं।”
इसी पत्र में अगले पृष्ठ 50 पर वे लिखते हैं “इनकी भाषा स्वयं में बहुत ही रमणीय और सुन्दर ध्वनि देने वाली है। इस भाषा में 53 वर्ण हैं। जिनमें से सभी बोले और वैसे ही लिखे जाते हैं। इन सभी वर्णों का जन्म मुंँह और जीभ की विभिन्न, ध्वनियों और गतिविधियों से होता है। ये हमारी सभी अवधारणाओं को आसानी से अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं। ये लोग मानते हैं कि हमारी भाषा के वर्णों की संख्या, इनके वर्णों से आधी या उससे भी अधिक की कमी के कारण, हम अपनी ही भाषा में इनके जैसा उपयोग नहीं कर सकते।”

मेरे देखे देवनागरी लिपि के स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ये सब नाद ब्रह्म ‘ओम’ की ही कलाएँ हैं। ये सभी वर्ण शिरो रेखा से जुड़े हैं। अपनी जीवन रेखा से जुड़ा अक्षर, आपके उच्चारण पर आपकी देह में ऊर्जा के माध्यम से उतरता है। साथ ही ध्वनि, समक्ष व्यक्ति से संवाद भी साधती है।
आप रीढ़ के बल बैठकर क, ख, ग, घ वर्णों का उच्चारण करें। क उच्चारण के बाद ख का उच्चारण और ख का उच्चारण के बाद ग, बाद में घ का उच्चारण। इन वर्णों के उच्चारण की ऊर्जा, गहरे से गहन और गहनतम होती जाती है। ‘ड़’ वर्ण के उच्चारण से उपजी ऊर्जा, आपकी रीढ़ के बल, मूलाधार तक उतर चोट कर, आपके सहस्त्रार तक की यात्रा करती है। ‘ड़’, ‘न’, ‘ण’, ‘ञ’ के उच्चारण पर देह ऊर्जा का एक अंत: स्फोट घटता है। यह अंत: स्फोट, जिसे अंग्रेजी में इम्पलोजन कहते है, घटता है। अंत: स्फोट मातृशक्ति है। इसीलिए दर्शन के तल पर भाषा को मातृभाषा कहा गया है। अंत: स्फोट की क्रिया मातृत्व यानि माँ के रोम रोम से भी जुड़ी है।
उच्चारण करने पर वर्ण बोध, शब्द बोध, ऊर्जा बोध और ऊर्जा का यात्रा बोध, देह तल पर घटती यह पूरी क्रिया, अंत: स्फोट है। जैसा कि पहले बताया वर्ण और शब्द युग्म के बीच का अंतराल शून्य है। शून्य चैतन्य है। हमारे जीवन में इस चैतन्य का विस्तार चहुँओर है। हमारी देह और देह का अंतस भी इसी का विस्तार है। शब्द युग्म के बीच के अंतराल की बात समझने जैसी है। दर्शन में इसी को ‘हिरण्यगर्भ’ भी कहा गया है। यही चैतन्य रूपी अंतराल मौन घटने की राह है। यही मौन स्थितप्रज्ञ का पायदान है। इससे भी आगे बढ़कर यही मौन परमात्मा का आसन है।
मानव की समझ की सीमा है। मौन का तल अस्तित्व के विस्तार ही स्वरूप है।
आप जिस क्षण शब्दों के मध्य, चैतन्य रूपी अंतराल को साक्षी भाव से अनुभूत कर लेंगे, उस दिन से आप नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष और ध्वनि साधना को समझ सकेंगे। उस दिन से आप देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता से आगे बढ़, वैज्ञानिकता का पल्लू छोड़, नागरी लिपि के दार्शनिक पायदान का पता पा जायेंगे।

रामा तक्षक

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