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कहानी कृतघ्न

विधा -कहानी

कृतघ्न
उफ ! ये दिन देखने थे। हाय विधाता. …..सुलोच‌ना
अचेत हो गई। चूर-चूर हो चुके थे उसके सुनहले सपने !एक दिन था जब मीनू को आँगन में इठलाते देखवात्सल्यमयी माँ भाव-विभोर हो उठती । अपने हृदय-कुसुम मीनू के भविष्य को लेकर ऊँची उड़ानें भरती।
आज वह भग्न- चूड़ा है। परंपरागत आदर्शों में ढली
हिन्दू विधवा ! उसकी पीड़ा को कहीं सीमा थी?
जलते निदाघ का मध्याह्न था उसका जीवन ! पल-पलयुग-सा बीत रहा था। मनोव्यथा का भारी भरकम बोझ तिस पर मीनू की देखभाल, चूल्हा-चौका, घरेलू उद्योग,मीनू की शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कार का दायित्व !
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मीनू समझदार किशोर है। माँ की वेदना समझता है। उसके प्रति करुणा और सहानुभूति है उसमें। अतः सुलोचना के निर्देशों का पालन करता है। उसकी आज्ञा शिरोधार्य करता है। अध्ययनशील है।सहपाठियों का वह प्रतिद्वन्द्वी है।कक्षा में अव्वल है। सुलोचना को नाज़ है उस पर !
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मीनू अब चन्द्रकान्त कहलाता है। एक हृष्ट-पुष्ट युवा है वह। माँ ने सिर आँखों पर जो रखा है उसे!
एक लंबे समय तक वह अस्वस्थ भी रहा। माँ ने दिन- रात एक किए उसके लिए। कठिन श्रम से जोड़ी हुई पूंजी उसकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर बहा दी। स्वयं अभाव झेल ,पुत्र की जरूरतें पूरी करने के लिए एड़ी चोटी का दम लगाया । वक्त के थपेड़े सह वृद्धा हो चली, पर खुशी है उसे कि मीनू अब बड़ा हो गया। पैरों पर खड़ा हो जाएगा। अब दिन पलेटेंगे। चन्द्रकान्त, सुलोचना जिसे चन्दू भी कह‍ती है ; कभी कभी मां को चिढ़ाने की कोशिश करता है,पर विशाल हृदया स्नेहमयी मां के मुख पर मुस्कान खिल आती है। वह अपनी कोशिश को बल देता है मानो मां की मुस्कान को तौल रहा हो;पर पुत्र स्नेह वश मां इन हरकतों मेंआनन्द ही लेती है ।मातृ हृदय ने सदैव उसके अल्हड़ पन को क्षमा ही किया है।

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कभी कभी कोई सुलोचना से उसकी शिकायत करता। मां को उसके बदलते चरित्र के प्रति सावचेत करता। किन्तु माँ का प्रगाढ़ स्नेह, उसे स्वीकार नहीं करता। उसके वात्सल्य का अथाह समुद्र हिलोरें लेता रहता। वहाँ पुत्र के दोष का कोई स्थान न था। फिर उसके स्वप्न पुनर्जीवित हो उठे थे। घर की भावी खुशहाली की कल्पना उसे आह्लादित किए रहती।
एकदिन वह उच्चपदासीन होगा। मैं सुयोग्य कन्या से उसका विवाह कराऊँगी आदि आदि।

* * * चन्द्रकान्त्त को सरकारी नौकरी मिल गई। लेखाधिकारी का पद मिला। अध्ययन काल में ही सहपाठी छात्रा का वह वरण कर चुका था। उर्वशी
का उस पर जादू ऐसा चला कि उचित अनुचित का विवेक जाता रहा। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। मानी हुई शर्तों को अब ठुकरा नहीं सकता। कैसा कृतघ्न हो गया था वह उस क्षण! नौकरी मिलने के बाद मां को पदभार संभालने की खुशी देने के लिए बांसों दिल उछल रहा था। किन्तु हृदय में तीव्र वेदना थी। मां से मिलने के बाद उर्वशी से कैसे पार पार पाएगा । रिश्ता पुराना और मजबूत हो चुका है। फिर मुझे पाने के लिए उसने कितना कुछ किया है।वक्त पर मैं ही चूक गया। आखिर क्यों इतना कायल हो गया था मैं? क्यों.. क्यों? क्यों ? कृतघ्न हो गया था मैं! बीच का कोई रास्ता निकालना होगा।इसी उधेड़बुन के साथ वह घर पहुंचा। रास्ते में मिठाई की दुकान से मिठाई लेता गया । मां को खुश खबर देकर माँ के चरण स्पर्श किए ।मुँह मीठा कराया किन्तु सुलोचना को वह अनमना दिखाई दिया। बोली-क्या हुआ बेटा? खुशी की घड़ी में भी तू खुश क्यों नहीं दिखाई देता?

चन्द्रकान्त- “मां अभी नई नौकरी है न !थोड़े दिनों में सब ठीक हो जायेगा ।मुझे सुबह जल्दी ही टूर पर जाना है। तीन दिनों तक वहीं रहूंगा। कुछ खिला दो मां फिर सो जाना है मुझे।

मां ने चटपट भोजन तैयार किया। प्रसन्नता से पुत्र के
साथ भोजन किया और चुल्हा चौका साफ कर आज
जल्दी ही चैन की नींद सो गई।
सुबह चन्द्रकान्त रवाना हो गया। सुलोचना भी खुशी खुशी घर से बाहर निकली और मोहल्ले भर में मिठाई बाँट आई । धन्य हो गई। हर्ष के अश्रु थमते न थे।
* * * *

तीनों दिवस बीत गए। माँ आशा के दीप जलाए बैठी है। जरा आहट – सी लगती है तो वह उठकर देखती है।दिन बीता, रात बीती फिर सवेरा हो गया। अब तो
वह आशा और चिन्ता के झूले में झूलने लगी।
दिल भारी हो गया। काम में मन लगाती पर बार-बार
जी उचट जाता।
दिन पर दिन बीतते गए। अब तो सुलोचना जिन्दा ही चिन्ता की चिता में मानो धू-धू जल रही थी। बार-बार जी उचट जाता सुध भूल जाती। न भोजन का होश रहता न पानी का।अत्यन्त कृशकाय हो चली।कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा था। बड़ी देर में तेज़ आवाज़ होने पर उसकी समझ में आया, कोई है दरवाजे पर। हिम्मत आई। जाकर देखा तो मीनू का पुराना दोस्त था, कुलदीप ।
कुलदीप चरण स्पर्श करता हुआ बोला- अम्मा आपकी याद आ रही थी। सोचा मिलता चलूँ। सुलोचना की आँखें डबडबा आईं। कुलदीप को अंकवार में भर बोली- अच्छा किया बेटा!कंठ अवरुद्ध होता जा रहा था पीड़ा का बाँध टूट चुका था। व्यथा फूटती जा रही थी –
सुलोचना – चन्द्रकान्तः मेरा चन्दू… अभी.. त क टू र .. से..न…. कुलदीप बीच में ही बोल उठा- वह नहीं आएगा अम्मा! मैं आपको लेने आया हूँ।
सुलोचना – नहीं आएगा? क्यों ….‌बे….कहती हुई धड़ाम से गिर पड़ी। कुलदीप ने उसे गाड़ी में डाला।
* * * *
चन्द्रकान्त दफ्तर से लस्त – पस्त होकर लौटा। न जाने क्यों आज जी कुछ ठीक न था। विश्राम के लिए लेटा तो आँख लग गई। उर्वशी भोजन के वक्त जगाने लगी पर हालात समझ स्वयं जागने का इन्तजार करने लगी। उधर चन्द्रकान्त सुषुप्ति की दुनिया में देख रहा है-
भीषण आँधी और तूफान में समुद्र उत्ताल तरंगें ले
रहा है। तट पर खड़ा वह देख रहा है, एक स्त्री आकृति को। वह लहरों में बार-बार डूबती उतराती, किसी को पकड़ने का प्रयास करती और असफल रह जाती। बार बार यही क्रम ।

चन्द्रकान्त अब रूक न सका। बचाने का निश्चय कर आगे बढ़ा तो देखता क्या है, वह धुंधली स्त्री आकृति तट की ओर आई और एक चट्टान पकड़ खड़ी हो गई। चन्द्रकान्त के आश्चर्य का ठिकाना न था।धक् से रह गया।
चन्द्रकान्त- आप कौन है?
आकृति- “चुप रह; दूर हट ”
आवाज पहचानी हुई थी। ठिठक कर चन्द्रकान्त आगे बढ़ा। आकृति जल में अन्तर्विलीन हो चुकी थी।
भगवान् भास्कर प्राची में अवतरित हो चुके थे।
वृक्षों पर खगवृन्द कलरव कर रहे थे। एक भयानक शोरगुल के बीच स्वप्न टूटा तो चीख निकल आई।
माँ का वह मृदुल स्नेह याद आया जब रुग्णावस्था में वह सहलाया करती। उसकी जरूरतों के लिए दौड़-धूप करती। रात- रात भर जागती। दिन भर मशीन चला कर देवा- दारू और भोजन की इन्तजाम करती……….

हाँ ,वही माँ थी वह जिसने उस दिन कहा था –
“खुशी की घड़ी में भी तू खुश क्यों नहीं दिखाई देता?’’
मां थी वह…….
‌मुझे पढ़ना बहुत जानती थी वह!
हां चिन्तित हो उठी थी…
ग्लानि से भरा हुआ
बेहद लज्जित था चन्द्रकान्त!

कृतघ्न!किस हद तक कृतघ्न….

अक्षयलता शर्मा

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