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बातुल ! भूत बिबस!!

बातुल !
भूत बिबस!!
मतवारे!!!।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।

बातुल अर्थात् जो व्यक्ति वायु विकार अर्थात् गैस से संबंधित रोग से ग्रसित हो, बाई चढ़ी हो वह व्यक्ति जो सो बड़बड़ाने लगता है।
भूत बिबस अर्थात् जिस पर भूत प्रेत की छाया पड़ जाए तो वह व्यक्ति जो सो बोलने लगता है।
मतवारे अर्थात् जिसने मादक पदार्थों का सेवन किया हो जैसे शराबी व्यक्ति, वह आगे पीछे कुछ विचार नहीं करता बल्कि जो मन में आया बोलने लगता है।
काम वासना भी वात रोग (बाई) ही है …काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
तथा काम क्रोध और लोभ तीनों का आपस में भ्रातृवत् संबंध है ही जिसकी अंतिम परिणति सन्यपात रोग है।
काम पूर्ति में यदि बाधा आए तो क्रोध, और यदि काम पूर्ति भी हुई तो लोभ में वृद्धि , यही तीनों के भ्रातृवत् संबंध दर्शाता है।
अंगद ने रावण के अंदर तीनों (काम क्रोध और लोभ) के उसी सन्यपात रोग में परिणत होते हुए देखा…
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा।।
भूत बिबस- ये आवश्यक नहीं है कि केवल भूत प्रेत सवार हो वही व्यक्ति विचारहीन बातें करता है बल्कि पंथ के नाम पर, संगठन के नाम पर ही सही पर उन्माद युक्त बातें करना, भगवान से द्रोह करना , भगवान के प्रति अनर्गल बातें करना भी भूत बिबस के लक्षण हैं।
मतवारे – मदिरा, भांग, धतूरे, चरस आदि मादक पदार्थ के सेवन करने वाले ही केवल मतवारे नहीं हैं बल्कि देखने को मिलता है कि कई ऐसे लोग भी हैं जो
सत्ता के मद,
धन संपत्ति के मद में,
भगवान पर ही अनर्गल प्रलाप करते हैं।
कलिमल ग्रसे लोग सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ।।
ये तो कलियुग की बातें हैं लेकिन सतयुग और त्रेता युग में भी ऐसे मतवारे हुए ही हैं जो इस मद से बचे नहीं हैं।
जब भरत जी राम जी को मनाने के लिए समाज सहित चित्रकूट जा रहे थे तो इस समाचार को सुनकर लक्ष्मण जी राम जी को सतर्क करते हैं कि लगता है कि भरत को अयोध्या के राज्य मिलने से सत्ता मद हो गया है। और इसमें भरत जी का दोष नहीं है क्योंकि राज्य सत्ता पाकर, प्रभुता पाकर धनादि पाकर बौरा जाता है..
भरतहि दोषु देइ को जाए। जग बौराई राज पदु पाए।।
ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद ते बिमुख भा अधम न बेन समान।।
सहसबाहु सुरनाथ त्रिसंकू। केहि न राजपद दीन्ह कलंकू।।
सत्ता रूपी नशा ने बहुतों को पथभ्रष्ट किया।
इसी प्रकार बल पौरुष के मद भी कम खतरनाक नहीं है।
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुं न पावा।।
रबि ससि पवन बरून धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।
किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहि लागा।।
भगवान के कृपा से बल मिला, वरदान मिला परन्तु बल के ऐसा मद हुआ कि जैसे बौराए हुए सांढ या भैंसा सबसे टकराने लगता है उसी प्रकार रावण सभी से वैर करने लगा।
अपने बड़े भाई कुबेर पर तो पहला आक्रमण… एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।
गुरूदेव शंकर जी को भी नहीं छोड़ा बल्कि कैलाश पर्वत समेत उन्हें भी उठा कर अपने बल का उनके सामने प्रदर्शन किया कि नहीं??
पांडित्य के ऐसा मद चढ़ा कि ब्रह्मा जी की बुद्धि भी उसे कमजोर लगने लगा…लिखा बिरंची जरठ अति भोरे।।
उसे ब्रह्मा जी सठियाए हुए मूर्ख ही लगने लगे।
अतः ऐसे मतवारे की दृष्टि में रघुकुल के स्वामी राम जी साधारण मनुष्य ही लगेंगे न???
ऐसे लोग राम जी के प्रति अनर्गल प्रलाप करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है…

सीताराम जय सीताराम…….. सीताराम जय सीताराम

कथाव्यास – पंडित आदित्य प्रकाश त्रिपाठी

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