दीप और अंधेरा
दीप और अंधेरा
दीप जलता रहा रात ढलती रही,
मूक मन का अंधेरा न कम हो सका ।
भावनाओं की मिट्टी से दीपक बना,
आह की ऑधियों में सुखाया उसे।
फिर विकल वेदनाओं की बाती बना,
ऑसूओं की लड़ी से जलाया उसे।
दर्द बढ़ती रही पीर पलती रही,
जिन्दगी का सहारा न गम ढ़ो सका।।दीप
प्राण ! आहुति मैं देकर जलायी दिया,
खुद मैं जलती रही पर न बुझने दिया।
रात ढ़लती रही , बस प्रतिक्षा में यूॅ,
भोर होने लगा पर न आये पिया।
वेदना यूॅ प्रतीक्षा , में पलती रही ,
उनके जैसा,न कोई निठुर हो सका।।दीप
ऐ जहॉ वालों , मुझको बता तो सही,
दीप ऐसा न होगा जहॉ में कहीं।
जो बिना तेल बाती के जलता रहे,
प्राण खलता रहे ,यूॅ शलभ का कहीं।
दीप भी न जला रात ढ़लती रही।
उलझनों का बसेरा न कम हो सका।।दीप
दीप माटी के जलते रहें यूॅ सदा।
इस तरह से सफर तूने पूरा किया।
जिन्दगी सबकी अपनी अधूरी रही।
आपने वादे को ,किसने है पूरा किया।
निज चमन को, जला रोशनी दी मगर।
तेरे बलिदान से ,जग को क्या मिल सका?दीप
तेरे बलिदान की बात चलती रही,
पर न ऑसू से चरणों को मैं धो सकी।
शुन्य कुटिया सजायी दिवाली मगर।
कामना वासना में सुलग न सकी।
सॉस अन्तिम हमारी गुजरती रही,
मौत का भी सबेरा न तम ढ़ो सका।।दीप
हो सकी भी न पूरी कहानी यहॉ ,
बुझ गया दीप देकर निशानी यहॉ।
बुझ रहा आज सन्देश का कॉरवा,
रुप यौवन ढला अब जवानी कहॉ।
ले अधूरी पिपासा मैं जलती रही,
बर्फ चट्टान का भी पिघल न सका।।दीप
तिलमिला दीपिका सी मैं जलती रही,
“कामना” की कहानी न पूरी हुई।
प्राण छलना में ,तुमको मिला क्या यहॉ,
हर सफर साधना , यूॅ अधूरी हुई।
भूल जाए जमाना तुम्हें “कामना”,
साधना को न ,कोई भूलाने सका ।।दीप
डॉ उर्मिला साव “कामना”