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मानवता की जरूरत और उसकी सर्वव्यापकता

 

सहज रूप से अगर कुछ उपलब्ध है तो वो है मानवता और वो सहज रुप से सर्वब्यापक भी है। इस सहज स्थिति को हम लोग इसलिये समझ नहीं पाते क्योंकि हम मानवता की जरूरत को महसूस नहीं कर पाते।
रचनाकार ने यूं तो मनुष्य को बहुत कुछ दिया है।बहुत सारे‌ गुण दिये हैँ और जब मनुष्य के सौन्दर्य से अभिभूत हुआ तो उसने अपना सबसे प्रिय गुण मानवता भी उसको दे दिया।
अगर हम अपने को और अपनी प्राप्तियों को देखें तो पैदा होते ही हमें एक धर्म मिलता और एक देश मिलता है और इन्हीं को बचाने और संवारने‌ में हमारा जीवन व्यतीत हो जाता है।हम अपने को भाग्यशाली मानते हैं कि हमारा धर्म दुनिया का सर्वोत्तम धर्म है और हमारा देश ही दुनिया का सर्वोत्तम देश है। लेकिन हम अपनी इसी भाग्यशीलता के जुनून में यह भूल जाते हैं कि हमारी भाग्यशीलता इस लिये नहीं है कोइ धर्म हमारे धर्म से बुरा है कोई दूसरा देश हमारे देश से कम सुंदर है।हमारा यह जूनून हमें हमारी ही मानवता से दूर कर देता है।हम अपना ही सौन्दर्य खोने लगते है और हमें लगने लगता है हम और सुंदर हो रहे हैं और शक्तिशाली हो रहे हैं।
किसी ने कहा है हर पल में चारों युग मौजूद रहते है।हम भी मानते हैं हर पल हर युग के सौन्दर्य से आवेशित है।अब अगर हम इस पल के अतीत में जायें तो हमें चारो युगों की अनुभूति हो सकती है और युग का सौन्दर्य मानवता के गर्भ से उत्पन्न हुआ है।अगर हम धर्मो की स्थापना के क्रम में जायें तो हम इस नतीजे पर सहज रूप से अपने को पायेंगें कि स्थापत्य धर्म हमें हमारी मनुष्यता से जोड़ने का उपक्रम है।हम मानवता से दूर हुये सामाजिक संकटों से घिरे फिर कोइ आया और उसने हमें हमारी मानवता से जोड़ दिया।हमने अपनी मानवता को अपने जीवन से जोड़ने का उपक्रम किया जो उस स्थापित धर्म की क्रियाशीलता थी। हम आज भी युगों बाद भी उस धर्म को मानते हैं उसके उपक्रमों से नियमित सहकार करते हैं फिर भी मानवता दूर चले आये है और अभूतपूर्व संकट से घिर गये हैं। यकीन मानिये धर्म आज भी हमें संकटों से बाहर निकाल सकता है शर्त ‌इतनी सी है कि हम धर्म की स्थापना के मूल अपनी मानवता से विरक्त न हों।
अगर आप विभिन्न धर्मों के स्थापना काल‌ मे उस समय के समाज को देंगें, तो आप सहजता से इस निष्कर्ष पर ही पहुंचेंगे कि उस समय मानव सभ्यता के समक्ष उत्पन्न संकट के मूल‌ में मनुष्य के अंदर मानवता का अभाव था जिसके कारण समाज में आपस में भेद थे। बैमनस्यता‌ थी और मनुष्य का जीवन शांति और सरलता से दूर चला गया है। उसने अपनी बेचैनी को दूर करने के लिये नये रास्ते बनाये। उन रास्तों पर चलने से जीवन में शांति आयी आपस में प्रेम हुआ,भेदभाव खत्म हुये। लोगों ने उस रास्ते पर चलना शुरू किया और उस रास्ते को धर्म कहा और उसको एक नाम दिया।दुनिया में जितने भी धर्म है उनकी स्थापना के मूल में यही एक बात समान रही ओर वो आज भी है कि उस धर्म ने लोगों को मानवता से जोड़ जो सहज रुप से जन्मते उनके पास थी और वो अपने अपने धर्मों के पालन के जुनून मे अपने ही धर्म की स्थापना के मूल से खुद को विस्थापित कर लिया था या कर लिया है। इतने सारे धर्मो की सक्रियता के बाद भी मनुष्य अभूतपूर्व संकट से घिरा हुआ है।
आजकल तो दिलचस्प प्रकृति का भाव संसार हमारे चारो तरफ सक्रिय है। आपने सुना होगा मनुष्य अपने धर्म को बचाने का अभियान चला रहा है। प्रवचन चल रहे हैं,किताबें लिखी जा रही हैं, सार्वजनिक मंचों से भाषण चल रहे हैं धर्म पर खतरों की स्वीकार्यता के और उसे मुक्त कराने की सक्रियता के। नाटक खेलें जा रहे हैं,फिल्में बन रही हैं, उपवास किया जा रहा है,जुलूस निकाले जा रहे हैं, जुलूसों में हथियार लहराये जा रहे है और ये सब धर्म को बचाये रखने के निमित्त है। विचारों का प्रबल संवेग आंधी की तरह हमारे चारो तरफ शोर की तरह है। पहचान का गहरा संकट है।आदमी ये नहीं महसूस कर पा रहा है कि उसका अस्तित्व जिन कारकों से है वो धर्म है, उसकी सुरक्षा का स्वाभाविक कवच धर्म ही है।धर्म ही उसे बचाये हुये है और वो धर्म को न सिर्फ़ खतरे में देख रहा है अपितु उसे बचाने के लिये सक्रिय है और उसकी यह सक्रियता धीरे धीरे भयानक युद्ध में परिवर्तित हो चली है।
अगर हम मानवता की जरूरत और उसकी सर्वब्यापकता पर चर्चा कर रहे हैं तो हम कोइ नया विचार नहीं दे रहे हैं अपितु अपनी मानवता को और उसकी शक्ति को महसूस कर रहे हैं। उसकी उपयोगिता की जरूरत को महसूस कर रहे हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिये गये संदेश में कहा था जब धर्म का विनाश होता है मैं आता हूं। मैं आता हूँ धर्म की स्थापना करने के लिये।मनुष्य को उसके कर्म की प्रेरणा देने के लिये। मनुष्य को उसके दायित्व का निर्वहन कराने के लिये।उसको उसकी शक्तियों से परिचित करवाने के लिये।हम जो भी संज्ञा दें कृष्ण को वो भी एक मनुष्य थे। आदमी भगवान् बनना चाहे तो दुनिया उसे मिटा सकती है लेकिन भगवान को आदमी बनते हुये हमारे भारतीय भूखंड ने बार बार देखा है ।
अगर हम अपने अतीत का सिन्घावलोकन करें तो समय समय इस भूखण्ड पर आये हुये महापुरुषों के जीवन का अभीष्ट ही था मानवता के संदर्भ ‌को अपने समय के लोगों के जीवन से‌ जोड़ देने ‌का।ऐसा करते हुये‌ लोगों ने‌ उनके अंदर‌ सामान्य मानव से परे गुण देखे ओर महापुरूष, देवता से लेकर ढेर सारे नाम दिये। इसे सहजता हम अपने अतीत मे देख सकते‌ हैं।राम कृष्ण बुद्ध कबीर, अनगिनत नाम हैं।सबका अभीष्ट बस एक था कि मनुष्य को उसके सबसे सुंदर गुण मानवता से परिचित करवाया जाय और‌ उसको‌ उसी अनुरूप जीने की प्रेरणा दी जाय । नाम और समय की भिन्नता के बावजूद मूल‌ मंत्र एक था। मानवता को‌ दिव्यता प्रदान करने का।
हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक संदर्भ भर ही नहीं थी सर्वब्यापकता मानवता की। हमारा साहित्य भी मानवता की प्रशस्ति भरा हुआ है ।वेद,पुराण उपनिषद से लेकर आधुनिक साहित्य भी मानवता की उपयोगिता के लिये सक्रिय है। बेशक वो हमारे अतीत के साहित्य की तरह न सर्वमान्य है ‌और न साहित्य की मुख्यधारा बन सका है। साहित्य की जो मुख्यधारा है वो तो हमारे अतीत की सर्वमान्यता को तहस नहस कर रही है वो राजनीति से प्रभावित है और राजसत्ता उसे बल दे रही है ।मानवता से विरक्त कितनी धारायें उसके अंदर बह रही हैं। उस विभक्ततता की चर्चा करना यहाँ प्रसांगिक नहीं है। वजह एक है कि उनमें मानवीय दृष्टि का अभाव है।जैसे ही इसका अभाव दूर होगा एक नई धारा चल निकलेगी।
तनाव, वैमन्यस्यता, हिंसा की छत्रछाया या मे युद्धरत ये दुनिया वैभव और प्रेम के रास्ते पर चल पडे़गी। यह संभव है क्योंकि मानवता हमारे अंदर है और हम उसके आवेशित हो नया रास्ता बना सकते हैं ।

सुरेन्द्र कुमार सिंह चांस
मऊ उत्तर प्रदेश

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