मानवाधिकार शांति, अहिंसा, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के भूमंडलीकरण से सम्भव है मानवाधिकारों की रक्षा
*मानवाधिकार*
- शांति, अहिंसा, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के भूमंडलीकरण से सम्भव है मानवाधिकारों की रक्षा –
मनुष्य हमारी पृथ्वी पर कुदरत का सबसे अनूठा, अनोखा, अबूझ , अलबेला, तमाम रहस्यों से भरपूर, सृजनात्मक एवं रचनात्मक चेतना से लबालब लबरेज और खूबसूरत करिश्मा है। ब्रह्मांड के समस्त प्राणियों में मनुष्य पृथ्वी का सबसे क्रियाशील, सक्रिय, निरन्तर गतिमान तथा इकलौता बुद्धिमान, विचारवान , प्रज्ञावान और खोजी मस्तिष्क वाला प्राणी है। हमारी पृथ्वी का यह इकलौता बुद्धिमान प्राणी अपने खोजीं मस्तिष्क से अपने उद्भव काल से आज तक अनगिनत खोजें , आविष्कार और चमत्कार करता आ रहा है। अपने हुनर, हौसले, कौशल और सहज बोध तथा अपने खोजीं मस्तिष्क की बदौलत आदिम युग का अनपढ़, असभ्य और बर्बर मानव निरन्तर प्रकृति से लड़ते-जूझते इतिहास में अनगिनत सभ्यताओं और संस्कृतियों का निर्माता बन गया। यह चमत्कार मनुष्य के स्वतंत्र चिंतन और अभिव्यक्ति के कारण सम्भव हुआ है I इसीलिए मनुष्य के साथ -साथ मनुष्य का जीवन, मनुष्य के अधिकार और मनुष्य की स्वतंत्रता की रक्षा सृष्टि, सभ्यता, संस्कृति और विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। प्रकृति प्रदत्त शक्तियों तथा समाज और राज्य प्रदत्त अधिकारों द्वारा ही मनुष्य अपने जीवन को सजाता, संवारता और मनुष्यता को गंगनचुम्बी बुलंदी प्रदान करता है। इसीलिए मनुष्य के अधिकारों की रक्षा करना हर देश की सरकारों और जिम्मेदार वैश्विक संगठनों और संस्थाओं की सामूहिक जिम्मेदारी है। मनुष्य के कुछ अधिकार जन्मजात होते हैं। इन जन्मजात अधिकारों के अभाव में मानव जीवन उसी तरह निष्प्राण हो जाता हैं जिस तरह पानी के बिना मछली का जीवन निष्प्राण हो जाता हैं। वर्तमान विश्व राजतंत्र और राजतंत्रीय परम्पराओं को लगभग पूरी तरह पिछे धकेल कर लोक तंत्र और लोक तांत्रिक परम्पराओं सांचे-ढाँचे में ढल चुका है। इस लिए लोकतंत्रिक संस्कृति में रंग चुकी दुनिया में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों ने अपने नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया है।
एक सभ्य सुसंस्कृत समाज में मनुष्य के आधारभूत अधिकारों की संकल्पना अत्यंत प्राचीन काल से लगभग समस्त धार्मिक ग्रन्थों, महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, मुहम्मद साहब और ईसा मसीह जैसे धर्म प्रवर्तकों , सुप्रसिद्ध संतों और मानवतावादी विचारकों के उपदेशों और विचारों में किसी न किसी रूप में अवश्य रहीं हैं। परन्तु आधुनिक अर्थो में जन्मजात और अहरणीय मानवाधिकारो के स्वरूप और सिद्धांत पर सार्वभौमिक सहमति द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत निर्मित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशो के मध्य 10दिसंबर 1948 मे बनी। 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मनुष्य के कुछ जन्मजात और अहरणीय अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया,अंगीकार किया उद्घोषणा किया तथा सदस्य देशों के बाध्यकारी किया। सदस्य देशों ने सामूहिक सहमति के आधार पर तय किया गया कि-स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा विश्व के प्रत्येक मनुष्य के इन जन्मजात और अहरणीय अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। इसी उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। मानवाधिकारो की इस उद्घोषणा की अनुपालना में दुनिया के लगभग सभी आधुनिक सभ्य और लोकतांत्रिक देशों ने अपने-अपने संविधान में जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र,रंग और अन्य संकीर्णताओं से उपर उठकर समुचित प्रावधान किया है।आज मानवाधिकार दिवस के दिन अमन और शांति के लिए प्रयास करने वालों और मानवता को बचाने के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाता हैं।
प्राचीन यूरोप के ज्ञान-विज्ञान के पालना के नाम से विख्यात यूनान के सोफिस्ट दार्शनिक प्रोटेगोरस ने कहा था कि-” मनुष्य समस्त वस्तुओं का मापदंड है ( man is the measurement of all things) “। प्राचीन यूनान में ही सुकरात ने यूनानी समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और प्रचलित असंगत रूढियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए जहर का प्याला पी लिया। सुकरात के इस साहसिक त्याग से अभिव्यक्ति के अधिकार का विचार अंकुरित हुआ। प्राचीन भारत में सम्राट अशोक की धम्मपद की घोषणाओं में भी मनुष्य के जन्मजात और अहरणीय मानवाधिकारों का उल्लेख मिलता है। परन्तु सुसंगठित, सैद्धान्तिक और आधुनिक स्वरूप में मानवाधिकारो के उदय की परिघटना यूरोप के पुनर्जागरण के उपरांत की है। द टवैल्व आर्टिकल्स ऑफ ब्लैक फारेस्ट को मानवाधिकारो की दिशा में पहला दस्तावेज माना जाता है। यह दस्तावेज वस्तुतः जर्मनी में 1525 किसानों के संघर्ष के दौरान किसानों की मांग के एक हिस्से के रूप में जाना जाता है है। इसके उपरांत इंग्लैंड में ब्रिटिश बिल ऑफ राइट्स के माध्यम से नागरिक अधिकारों की संकल्पना को मजबूती मिलीं। मानवाधिकारो की संकल्पना को सर्वाधिक लोकप्रिय और व्यापक बनाने मे 1776 मे अमरीका के स्वाधीनता संग्राम और 1789 में सम्पन्न होने वाली फ्रांसीसी क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही। फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व के नारे के साथ विशेषाधिकारो के विरुद्ध प्रखर संघर्ष किया। अनवरत संघर्षों और अनगिनत कुर्बानियों के उपरांत वैश्विक स्तर पर स्थापित मानवाधिकार तब तक सार्थक और सफल नहीं हो सकते हैं जबतक दुनिया में साम्राज्यवादी विस्तारवादी दृष्टिकोण, आतंकवाद, सैनिक तानाशाहियाॅ, सीमाओं और सरहदो पर तनाव तथा नस्ल प्रजाति और धर्म के नाम पर रक्तरंजित संघर्ष कायम हैं। दुनिया के ताकतवर देश कमजोर देशों को भयाक्रांत करने तथा दुनिया में अपनी दादागिरी कायम करने के लिए एक से एक अत्याधुनिक किस्म के घातक हथियारों का निर्माण कर रहे हैं।
आदिम युग के अनपढ़,असभ्य और सभ्यता तथा संस्कृति से पूर्णत अनभिज्ञ मानव ने महज पत्थर के औजार बनाऐ। ये औजार आदिम मनुष्य ने जंगली जानवरों का शिकार करने और आत्म रक्षा हेतु बनाये। आज आधुनिक युग का शिक्षित सभ्य सुसंस्कृत तथा ज्ञान विज्ञान तकनीकी से पूर्णतः मर्मज्ञ मानव अत्यधिक मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्र मिसाइलें और विनाशक हथियारों और पलक झपकते शहर को तहस-नहस कर देने वाले परमाणु बम और हाइड्रोजन बन बना रहा है। निश्चित रूप से इन समस्त विनाशक हथियारों का निर्माण किसी जंगली जानवर को मारने के लिए नहीं बल्कि स्वयं को मारने के लिए कर रहा है। विनाशक हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ती प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के दौर में मानवाधिकारो पर विचार करना बेमानी लगता है। इसीलिए युद्ध रहित दुनिया में शांति , अहिंसा, सहिष्णुता, शांति पूर्ण सह अस्तित्व, प्यार, करूणा, दया और परोपकार की भावना और विचारों के भूमंडलीकरण द्वारा मानवाधिकाऱो को जीवंत रखा जा सकता हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आयोग कार्यरत है और संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देश पर लगभग सभी देशों में राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर मानवाधिकार आयोग कार्यरत है परन्तु मानवाधिकार के उल्लंघन की उत्तरोत्तर बढती घटनाएं हमें इमानदारी से मानवाधिकारो पर चिंतन करने के लिए विवश करती हैं। वस्तुतः मानवाधिकार एक गतिशील अवधारणा हैं। बदलते दौर के हिसाब से इसके आकार तानाशाहियों और राजशाहियों के दौर में स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार ही मानवाधिकार की दिशा में एक चुनौती थी। कल कारखानों में काम के घंटे सुनिश्चित कराना, प्रबंधको द्वारा मेहनतकशो का शोषण तथा कार्य स्थल पर स्वच्छ वातावरण मानवाधिकारो की दिशा में एक चुनौती है। विकास की अंधी दौड़ चंद लोगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक विदोहन और इसके कारण फैलते प्रदूषण के दौर में मनुष्य को शुद्ध हवा पानी और प्रदूषण रहित पर्यावरण उपलब्ध होना भी एक चुनौती है।
मनोज कुमार सिंह
लेखक/ साहित्यकार/ उप सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका