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नारी संसार का श्रेष्ठ रत्न है और श्रेष्ठ रत्नों में उसका माँ का रूप सर्वश्रेष्ठ रत्न है

ब्रहमा ने जब सृष्टि की रचना की तो उन्होंने महसूस किया होगा कि मात्र सृष्टि की रचना करने से ही उनका कार्य पूरा नहीं हो सकता है। यही कारण है कि सृष्टि को और अधिक सुन्दरता प्रदान करने तथा जीवन की सुन्दरता की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए जीवों में स्त्री पुरुष की रचना की। यही कारण है कि युग पर युग बीतते रहे और लाखों वर्ष बाद भी पृथ्वी की सुंदरता में आकर्षण निरन्तर विद्यमान है। केवल रचना करना ही उन रचनाओं में से एक को मातृत्व का रूप देना भी आवश्यक था। मानव जाति में ही नही पशु पक्षी, जीव जन्तुओं यहॉं तक कि पेड़ पौधों में भी उन्होंने स्त्री पुरुष को दूसरे रूपों में अवतरित किया।
बराह मिहिर का मत था कि ब्रहमा ने स्त्री (माँ) के अतिरिक्त ऐसा कोई बहुमूल्य रत्न इस संसार में नहीं बनाया जो सुनने में, बोलने में, देखने में, स्पर्श करने में,और स्मृति में आते ही आनंद उत्पन्न कर सके। स्त्री-पुरुष की संरचनाओं में अंतर होने के कारण उनकी सोच में, विचारों में, क्रिया कलापों में व्यापक अंतर दिखाई पड़ता है। समय के परिवर्तन के अनुसार दोनों के सामाजिक स्तर में परिवर्तन आता रहा, अंतर आता रहा हैं परन्तु कटु सत्य यह है कि स्त्री के माँ के कारण ही घर में अर्थ है, धर्म है, सन्तान सुख है। इसी कारण समाज में माँ का सदैव आदर और सम्मान होता आया है।
शंकर जी ने तो स्त्री को तीनों लोक की माता माना है और उसे शक्ति का प्रतीक बताया है। इस पर भी हमारे समाज में स्त्री को हर युग में पुरुष से निम्न स्थान प्रदान किया जाता रहा है,आधुनिक युग या पाषाण युग को छोड़ दिया जाये तो उस स्वर्ण युग में भी जब स्त्री को पूरे परिवार में, समाज में आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था,जब उसके बिना परिवार का कोई सामाजिक, सांस्कृतिक कार्य, धार्मिक पूजा अर्चना का कार्य पूरा नहीं समझा जाता था, उस स्वर्ण युग में भी माँ का स्थान, स्त्री का स्थान पुरुष के बाद ही आता था। शिव का कथन है कि ‘नारी के समान न सुख है, न गति है, न भाग्य है, न राज्य है, न तीर्थ है, न योग है, न जप है, न मंत्र है और न ही धन है। वही इस संसार की पूज्यनीय देवता है। क्योंकि पार्वती वह पार्वती का रूप है।’ लेकिन रामायण या महाभारत काल को ही ले लिया जाये तो वहॉं भी पूरा आदर-सम्मान माँ को प्राप्त होने के बाद भी चाहे कौरवों की सभा रही हो, या राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा ली गयी हो, या कंस को अपनी मृत्यु के भय से देवकी के बच्चों की हत्या करनी पड़ी हो, हर जगह, हर काल में स्त्री को, माँ को अपने स्त्री होने का मूल्य चुकाना पड़ा है।
आज भले ही पुरुष कितना ही आधुनिक होने का दम्भ क्यों न भरता हो, भले ही चन्द्रमा पर पहुंच गया हो। मंगल के आस पास चक्कर लगा रहा हो। भले ही अपनी पौरुष क्षमता के बल पर उसने कितनी ही प्रगति क्यों न कर ली हो, भले ही स्त्री के प्रति माँ के प्रति अपने विचारों में, क्रिया कलापों में,सोच विचारों में आदि में,वह अपनी आधुनिकता,अपना खुलापन,उसके प्रति आदर – सम्मान, बराबर की भावना क्यों न प्रदर्शित करता हो लेकिन उसके अन्तर्मन में स्त्री के प्रति सदैव द्वेष तथा कुलषित विचारों की भावना छिपी रहती है। वर्तमान युग मे शादी होते ही स्त्री पुरुष माता पिता को अकेला छोड़ दूर नया घर बसाना शुरू कर देते हैं।
देश में प्रकाशित समाचार पत्रों में या दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों में प्रतिदिन स्त्रियों के प्रति हो रहे अन्याय,दोषारोपण, अत्याचारों की खबरें प्रमुख आकर्षण का केन्द्र रहती हैं। जबकि भारतीय नारी के संस्कार ही कुछ ऐसे होते हैं कि संकोच, लज्जा,सहनशीलता , की भावना उसमें इस कदर भरी होती है वह अधिकांशतः अन्याय, अत्याचार बड़ी सहजता से सहन कर जाती हैं। यदि स्त्रीयों के प्रति हो रहे प्रति दिन प्रतिघात अन्याय,अत्याचार, अपराध समाचार पत्रों में स्थान पाने लगें तो शायद समाचार पत्रों के पृष्ठ बहुत कम पड़ जायें।
प्राचीन काल से कहा जाता है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’। आज भी हजारों वर्ष बाद भी ये पंक्तियॉं सार्थक हैं और जिन परिवारों में आज भी माँ का स्त्री का आदर सम्मान होता है वहॉं सुख -समृद्धि सभी का वास होता है, और जिस घर में माँ का अपमान होता है वहॉं अशान्ति,दरिद्रता,दुख,अभाव सभी घर कर जाते हैं। आज के सामाजिक वातावरण पर दृष्टिपात करें तो यह कटु सत्य होता कि अपने भविष्य के अंधकारमय होने का भय, समाज द्वारा उपेक्षित-तिरस्कृत किये जाने का भय, यदि स्त्री को न होता तो विश्व में सबसे अधिक तलाक हमारे देश में होते।
विभिन्न सरकारों ने समय समय पर महिलाओं के हित में सुधार के लिये, उनके विकास, उन्नति, सुरक्षा के लिये अनेक कानून बनाये, महिला आयोग बनाया, स्वयं महिलाओं ने अनेक संगठन बनाये, लेकिन यह भी कटु सत्य है काफी सीमा तक कि ये भी कागजी कार्यवाही तक सीमित होकर रह गये। किसी का भी कार्य ऐसा नहीं रहा जो इतिहास के पन्नों पर अपनी छाप छोड़ जाता। आज भी अनेक स्त्रियॉं माताएँ अपने परिवार की गरीबी, बीमारी से व्यथित होकर, अपने भविष्य के प्रति शंकित होकर, अपने बच्चों सहित आत्म हत्यायें कर रही हैं। बलात्कार, दोषारोपण के प्रति भी न तो संगठन, न आयोग, न सरकार ही कोई सखत कदम उठा पा रही है इसका सबसे बड़ा सबूत दिन प्रतिदिन इन घटनाओं में हो रही वृद्धि से पता चलता है।
गत दशकों में देश के शहरों गॉंवों में हजारो स्त्रियॉं, छात्राएं ही नहीं बच्चियॉं तक अपराध, अन्याय अत्याचार का शिकार ही नहीं हुई वर्ना अनेकों ने इन घटनाओं से तंग आकर आत्महत्या कर हमारे सिस्टम के मुहॅं पर करारा तमाचा मारा है। लेकिन उस तमाचे की आवाज बहरों को नहीं सुनायी पड़ी,न किसी को दर्द व अमानवीयता अहसास हुआ।
स्वयं महिला संगठनों,संस्थानों ने उच्च पद पर बैठी महिलाओं ने पद,रूतबा, राजनैतिक मंच तो पाया , सरकार, मंत्रियों के बीच अपनी पैंठ तो बनायी लेकिन देश की आम स्त्रियों के प्रति बुजुर्ग माताओं के प्रति कुछ कर,करा पाने में नितांत असफल रहीं। समय के साथ सभ्यता, संस्कृति, आचरण, नैतिकता, सोच विचार, क्रिया कलापों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है।
आज आवश्यकता भी इस बात की है कि शादी से पूर्व माता पिता पुत्र पुत्री को शादी का अर्थ भली भॉंति समझाये। पुरुष को चाहिये अपनी पत्नी का सम्मान करे और स्त्री को चाहिये अपने पति का सम्मान करे। स्त्री को एक नया घर बनाना होता है, यह आज से नहीं सदियों से होता आया है। वह अपने बचपन में पले पोशे घर को छोड़ कर आती है अपने इस त्याग और बलिदान का ध्यान रखना चाहिये। अतः परिचार में सुख शांति उसी के आचरण पर निर्भर करती है। क्योंकि स्त्री के बिना पुरुष कुछ भी नहीं अतः उसका उत्तरदायित्व और महत्व पुरुष से कही अधिक होता है। तभी परिवार और समाज में सुख शांति रहती है।
हमारे देश में सत्ता के दलालों ने जातीय आरक्षण का दैत्य खड़ा कर देश की सामाजिक राद्गट्रीय एकता को आपसी प्रेम सौहाद्र को छिन्न भिन्न करके रख दिया यदि आरक्षण की व्यवस्था जातीय आधार पर न होकर देश में केवल स्त्रियों के लिये होती तो भारतीय परिवारों और स्त्रियों की हालत सुधरती उनमें आत्मनिर्भरता, के कारण शक्ति, सम्मान की भावना भी जाग्रत होती। समाज में उनका स्थान स्वतः ही ऊॅंचा उठता। सबसे बड़ी सार्थक उपलब्धि राष्ट्र को यह होती कि सरकारी, अर्ध सरकारी कार्यालयों में जो भ्रष्टाचार का ताण्डव नृत्य जो देखने को मिल रहा है वह नगण्य होता क्योंकि स्त्रियॉं पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम भ्रद्गट होती हैं और ऐसे कार्यों से दूर ही रहती हैं। इतने वर्षों में यह देखने को भी मिला है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इसीलिये उसके महत्व को उसके गुणों को देखते हुए स्त्री के बारे में सही कहा है- ‘स्त्रीयॉं ही संसार का श्रेष्ठ रत्न हैं। इसलिये उसका सदैव ही सम्मान किया जाना चाहिये।’ और सत्य भी यही है कि स्त्री को सम्मान, आदर व उचित स्थान दिये बिना हम घर में, देश में, न तो समृद्ध परिवार, न ही समृद्ध राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। यह अच्छी तरह समझ लें जिस घर में हंसी खुशी बोलचाल की आवाजों से गूंजती हैं उस घर की सुख समृद्धि में पूरा योगदान स्त्री का होता है।

हेमचन्द्र सकलानी

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