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राष्ट्र के एकात्मक स्वर में जीवनप्रदायिनी शक्ति का संचार करनेवाली भाषा : हिन्दी

14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राजभाषा के रुप में स्वीकृत किया गया. 14 सितंबर 1953 से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर संपूर्ण देश में 14 सितंबर को “हिन्दी दिवस” के रुप में मनाने की स्वीकृति प्राप्त हुई. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इसे राष्ट्रभाषा के रुप में स्थापित करना चाहते थे. उनका मत था_ किसी भी

राष्ट्र के एकात्मक स्वर में जीवनप्रदायिनी शक्ति का संचार करनेवाली केवल उस देश की राष्ट्रभाषा ही हो सकती है. अतः राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी को समस्त राज्यों को जोड़नेवाली भाषा के रुप में उन्होंने देखा.

*हिन्दी भाषा का उदय:*
‘ हिन्दी’ इस शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द ‘सिन्धु’ से माना जाता है. ‘सिन्धु’ सिन्धु नदी को कहते थे. उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे. यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी एवम् फिर ‘हिन्द’ प्रचलित हुआ. ईरानी भाषा में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ किया जाता था. इस प्रकार हिन्दी शब्द सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है. कालांतर में हिंद शब्द संपूर्ण भारत का पर्याय बनकर सामने आया. इसी ‘हिन्द’ से हिन्दी शब्द बना. ‘हिन्दी’ वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है-हिन्दी का या हिंद से संबंधित होना.

आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है. आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी. संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते 500 ई.पू.के बाद तक काफ़ी बदल गई जिसे ‘पाली’ कहा गया. महात्मा बुद्ध के समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया. संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही. पहली ईसवी तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई तब इसे ‘प्राकृत’ की संज्ञा दी गई.

पाली की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषाएं – पश्चिमी,पूर्वी ,पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी ,अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, जिन्हें मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड एवम् अर्धमागधी भी कहा जा सकता है. आगे प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएं प्रतिष्ठित हुई. सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है. उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही ‘पद्य’ रचना प्रारम्भ हो गयी थी. हिन्दी भाषा व साहित्य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्था ‘अवहट्ट’ से हिन्दी का उद्भव स्वीकार करते हैं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने इसी अवहट्ट को ‘पुरानी हिन्दी’ नाम दिया. साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं. राजाश्रित कवि_ चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे. यह रचना- परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही. पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया. इस भाषा को विद्यापति ने ‘देसी भाषा’ कहा है.
अपभ्रंश_आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले( छठी से 12वी शताब्दी में) उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवन्त और प्रमुख भाषा थी. भाषावैज्ञानिकों की दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है. अपभ्रंश भाषासाहित्य के मुख्यत: दो रूप मिलते हैं – पश्चिमी और पूर्वी. अनुमानत: तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ. यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते हैं. आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है –

अपभ्रंश (आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा), पैशाची ( लहंदा,पंजाबी),
ब्राचड (सिन्धी), महाराष्ट्री( मराठी),
अर्धमागधी (पूर्वी हिन्दी), मागधी (बिहारी, बंगला,उड़िया,असमिया), शौरसेनी (पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी,गुजराती)
इस विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव ,अपभ्रंश के अर्धमागधी ,शौरसेनी और मगधी रूपों से हुआ है. किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ. यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था. इस शब्द से उनका तात्पर्य भारतीय भाषा से था.

*क्यों नहीं बन पायी हिन्दी अब तक राष्ट्रभाषा ?*
आज़ादी के इन 75 वर्षों में हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर विराजमान क्यों नही हो पायी ? इसके अनेक कारण स्पष्ट हैं_
भारत का प्रमाणिक संविधान अंग्रेजी में है. भारत की सभी उच्च अदालतों में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है. भारत की सभी नीतियां एवम् कानून भी अंग्रेजी में बनते हैं. सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रजी भाषा अवगत होना अनिवार्य है एवम् अंग्रेजी माध्यमवालों को ही सेवाओं में प्राधान्यता दी जाती है. चिकित्सा विज्ञान, आर्थिक, न्यायिक आदि क्षेत्र के विषयों में उच्चशिक्षा अंग्रेजी में ही दी जाती है. विषयों को हिन्दी मे पढाने की सुविधाओं का अभाव, अंग्रेजी को अधिक महत्व दिए जाने से बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में डालने की होड़ के कारण हम अंग्रेजों से तो मुक्त हो गए लेकिन उनकी अंग्रेजियत की दासता से अब तक मुक्त नहीं हो पाए है.

*हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर विराजमान करे:*
भूदान प्रणेता आचार्य विनोबा भावे का मत धा कि प्रथम स्थान पर राष्ट्रीय भाषा हिन्दी, दूसरे स्थान पर राज्यभाषा और तीसरे स्थान पर अंग्रेजी को प्राधान्य दिया जाना चाहिए.
हिन्दी को राजभाषा( केंद्रिय संस्थानों में कामकाज की भाषा) का दर्जा प्राप्त है. किन्तु सभी राज्यों ने राष्ट्र की भाषा के रुप में हिन्दी को एकमत से स्वीकार न करने के कारण आज़ादी के अमृत महोत्सवी वर्ष तक भी हम हमारे देश को एकात्मक स्वर देनेवाली राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी को विराजमान नहीं कर पाए है. हम अपनी भाषाओं पर अंग्रेजी को प्राधान्य दे सकते हैं तो हिन्दी को क्यों नहीं ? यदि लालकिले की प्राची से देश के पंतप्रधान उद्घोषणा करे कि आज से भारत में अंग्रेजी भाषा का स्थान हिन्दी को दिया जाता है और अंग्रेजियत से देश को मुक्ति दी जाती है. तो अवश्य ही इस निर्णय से अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व समाप्त हो सकता है. माना कि इस ठोस निर्णय से संपूर्ण राष्ट्र की व्यवस्था में अभूतपूर्व परिवर्तन करना होगा किंतु हमारा देश अपनी राष्ट्रभाषा के गौरव से विभूषित हो पाएगा.

हिन्दी पखवाड़ा /हिन्दी दिवस केवल औपचारिकतावश न मनाया जाए अपितु हिन्दी के प्रति मन में सम्मान एवम् अभिमान रखे. प्रतिदिन हम कुछ न कुछ हिन्दी में बोलेंगे/लिखेंगे या पढेंगे यह प्रण करे. हिन्दी सीखें, हिन्दी साहित्य पढ़ें एवम् हिन्दी प्रचार- प्रसार में अग्रणी बने . दूरदर्शन/आकाशवाणी के हिन्दी कार्यक्रमों में भाग लेने हेतु स्थानीय लोगों को प्रेरित करे. अन्यभाषी सभी वर्तमानपत्रों में एक ‘हिन्दी खंड’ अनिवार्य किया जाए. प्रत्येक क्षेत्र की शिक्षा/ ड़िग्री को प्राप्त करने का माध्यम हिन्दी भाषा हो, हम हिन्दी भाषा के प्रयुक्तिकरण में गर्व महसूस करे तो निश्चित ही हिन्दी संपूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरो सकती है, राष्ट्र के एकात्मक स्वर में जीवनप्रदायिनी शक्ति का संचार कर सकती है एवम् राष्ट्रभाषा के रुप में राष्ट्र का अभिमान बन सकती है.

*राष्ट्र की जान है हिन्दी*
*जन-जन का सम्मान है हिन्दी*
*मातृभूमि की शान है हिन्दी*
*हिन्दुस्ताँ की पहचान है हिन्दी*

– ड़ाॅ.अर्ज़िनबी युसुफ शेख
अकोला.महाराष्ट्र

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