भाषा पहचान होती है हमारी
सृष्टि के निर्माण के बाद ईश्वर ने पृथ्वी को सबसे सुंदर वरदान जो दिया था वह अच्छा जीवन के पनपने का, नवांकुरण,नवजीवन,नव सृजन का।
इन्हीं के कारण पृथ्वी का इतना सुंदर और विकसित रूप हमारे सामने है। उसी तरह मानव के सबसे सुंदर आविष्कार की खोज की जाए या उसके बारे में पूछा जाए तो शायद लोग न जाने किस-किस आविष्कार का नाम बताने लग जाएंगे, लेकिन जिस आविष्कार ने आज मानव समाज को यहाँ तक पहुंचाया उसका नाम शायद ही कोई बता पाएगा। वह अविष्कार था अक्षर का,फिर शब्दों का जन्म हुआ फिर स्थानीय बोली का। विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक होने का गौरव मिला हमारे वेद ग्रंथों को जिनकी लिपि संस्कृत थी जिसे हमारी संस्कृति में देववाणी कहलाने का गौरव मिला। संस्कृत से ही ब्रह्मलिपि का जन्म हुआ। फिर देवनागरी लिपि हिंदी का।हिंदू शब्द की उत्पत्ति सिंधु फारसी शब्द से हुई माना जाता है। तब एक प्राचीन मार्ग फारस से तिब्बत को जाता था। इस मार्ग से गुजरने वाले सिंधु नदी को तब उच्चारण की परेशानी के कारण सिंधु नदी न कहकर इंदु नदी के नाम से पुकारते थे और नदी के दक्षिण भूमि को इंदु प्रदेश के नाम से। कालांतर में यही शब्द परिवर्तित होकर हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान के नाम से प्रचलित हुए।
विश्व का कोई भी समाज या देश बिना अपनी भाषा के बिना, अपने साहित्य के न कभी उन्नति कर सका और न कभी समृद्ध हो सका है। भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने बहुत सुंदर शब्दों में भाषा को समग्र उन्नति समृद्धि का आधार कहा है यह कह कर “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिये को सूल।” आदिम युग इसी कारण असभ्य एवं क्रूर था क्योंकि उस समय गूंज तो थी पर शब्द नहीं थे। मानव शोर से संकेत से अपने भाव तो प्रकट करता था पर अक्षर शब्द बोली भाषा न होने के कारण उन भावों को बोल नहीं पाता था। अतः जब से मानव सभ्यता ने जन्म लिया यदि तब से अब तक के उसके आविष्कारों में से सबसे महत्वपूर्ण और सुंदर आविष्कार अक्षर को, शब्द को, बोलियों को, लोक भाषा को ही माना जाएगा।
भाषा के साथ उसकी संस्कृति भी विकसित होती चली गई जो उसके विकास उन्नति के साथ सभ्य एवम सुसंस्कृत होने की पहली सीढी थी। कल्पना कीजिए यदि शब्द भाषा न होती तो हम आज कहां होते।
स्वयं ऋषि-मुनियों ने, देवी देवताओं ने सबको ब्रह्म की संज्ञा दी। ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की रचना की तो अक्षर शब्द ने,सभ्यता संस्कृति को और सभ्यता संस्कृति ने साहित्य को जन्म दिया। किसी भी देश की सभ्यता संस्कृति तब तक गूंगी बहरी रहती है जब तक उस देश के संपूर्ण क्षेत्र में बोलने लिखने पढ़ने और राज चलाने वाली एक सर्वमान्य भाषा नहीं होती। बोली, भाषा, मनुष्य समुदाय को ही नहीं पशु पक्षियों तक को एकता के सूत्र में बांधती है। सच तो यह है कि भाषा किसी भी समाज, समुदाय, राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान होती है। शब्दों के निर्माण के बाद भाषा ने जन्म लिया फिर लिपि ने और फिर भाषा ने साहित्य सभ्यता संस्कृति को जन्म दिया, अर्थात भाषा का सुंदरतम रूप हमें साहित्य में देखने को मिलता है। यदि भाषा न होती तो शायद हम अपनी प्राचीन सभ्यता संस्कृति और गौरवशाली इतिहास से कभी परिचित न हो पाते। संभवत: तभी किसी को कहना पड़ा “अंधकार है वहां जहां आदित्य नहीं है मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नहीं है।”
15 अगस्त 1947 को हमारे देश को आजादी मिली अपने क्षेत्र पर अपना अधिकार मिला, अपनी पहचान के रूप में अपना तिरंगा लहराया, राष्ट्रगान के रूप में अपना राष्ट्रगीत मिला, शासन-प्रशासन चलाने के लिए अपना संविधान 30 जनवरी 1950 को मिला पर राजभाषा के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा वह तब जाकर थोड़ा थमा जब 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा के सदस्यों ने हिंदी के राजभाषा होने की औपचारिक घोषणा की। तब से 14 सितंबर को पूरे देश में हिंदी दिवस के रुप में मनाया जाने लगा। लेकिन 15 वर्ष बाद 1966 में जाकर संविधान द्वारा हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। क्योंकि किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रभाषा, उसका गौरव, उसका मान सम्मान होती है, उसकी पहचान होती है। अनेक भाषाओं वाले हमारे देश में हिंदी को निरंतर संघर्ष करना पड़ा। हमारे देश में भाषा की जटिल समस्याएं इस कारण हैं क्योंकि अन्य भाषाएं भी बहुत समृद्धि संपन्न और लोकप्रिय हैं। हमारे देश में इतने राज्य हैं, इतनी भाषा है, इतनी बोलियां हैं,इतने धर्म, इतनी जातियां हैं, कि इतने बड़े, इतने विशाल देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए, भावनात्मक रूप से सब को एक दूसरे से जोड़ने के लिए एक सर्व सम्मत भाषा, एक सर्वमान्य संपर्क भाषा होना इस देश की एकता की पहली शर्त हो सकती है।
पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉक्टर जाकिर हुसैन ने बहुत सुंदर शब्दों में कहा है कि “इस मुल्क में बोली जाने वाली तरह तरह की जुबानें अगर फूल हैं, तो हिंदी ही वह धागा है जिसमें इन फूलों को पिरो कर इस देश के लिए खूबसूरत हार बन सकता है।” राजभाषा हिंदी को लेकर जब कभी बहस होती है तो यह देखने में आता है कि अपने को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए लोग अंग्रेजी की आलोचना प्रारंभ कर देते हैं और सारा समय इसी में व्यतीत कर देते हैं। यह प्रवर्ति सही नहीं कही जा सकती है। प्रश्न यह है कि हम हिंदी के प्रचार-प्रसार में, उत्थान में कितना योगदान दे रहे हैं। भाषा कोई भी बुरी नहीं होती अंग्रेजी का अपना एक अलग महत्व है इसे विश्व का कोई भी देश नकार नहीं सकता। आलोचना,अंग्रेजी की नहीं हमारी स्वयं की होनी चाहिए पर क्या हम इतना साहस रखते हैं। अपनी भाषा, अपने साहित्य पर सभी को गर्व होता है और हो भी क्यों नहीं मैथिलीशरण गुप्त जी ने सही कहा है “जिसे न निज भाषा तथा निज अभिमान है, वह नर नहीं नर नर पशु निरा और मृतक सम्मान है।” हिंदी इतनी प्यारी भाषा है कि स्वतः ही किसी को कहना पड़ा था “गुप्त रहीम पंत की मानस गंगा हिंदी भारत माता के माथे की झिलमिल बिंदी है।”
देखा जाए तो आज सारा ध्यान हिंदी के प्रचार प्रसार पर दिया जा रहा है,और इस पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं पर इसकी समृद्धि, इसकी सुंदरता, इसकी लोकप्रियता पर कुछ भी नहीं।
हिंदी के ठेकेदारों ने, बुद्धिजीवियों ने, साहित्यकारों ने हिंदी के समुचित विकास के लिए, उसको लोकप्रिय बनाने के लिए आखिर किया क्या पूछा जा सकता है, सिर्फ पुरस्कार सम्मान पाने के अतिरिक्त। राजभाषा का दर्जा देने मात्र से, हिंदी का मंचों पर कीर्तन करने मात्र से, अंग्रेजी की आलोचना में समय गंवाने मात्र से, अखबारों में वक्तव्य देने,फ़ोटो खिंचवाने मात्र से, कोरे भाषण देने मात्र से अगर हिंदी का विकास हुआ होता तो आज हिंदी दिवस मनाने की जरूरत न पड़ती। हिंदी के तथाकथित साहित्यकार, ठेकेदार, राजभाषा अधिकारी जो हिंदी के लिए बहुत कुछ कर सकते थे उनका उद्देश्य मात्र हिंदी को अपने नाम के हित में भुनाने तक सीमित रहा, उससे अधिक और अच्छा कार्य तो समाचार पत्रों ने, हिंदी फिल्मों ने, कुलियों-मजदूरों ने किया। उन साहित्यकारों ने किया जो पत्र पत्रिकाओं में निस्वार्थ भावों से बिना किसी लोभ लालच के, बिना पारश्रमिक लिए अपनी रचनाओं के माध्यम से, पत्र पत्रिकाओं, पुस्तकों के माध्यम से भाषा को संजीवनी प्रदान कर रहे हैं।
सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह रहा कि हिंदी को बोली,भाषा,साहित्य, राजभाषा, राज्य भाषा, राष्ट्रभाषा, ही नहीं विभिन्न प्रांतों की भाषाओं से रस्साकशी के चक्कर में फंसा दिया गया। जबकि इसके भविष्य को समृद्ध, सुंदर, लोकप्रिय, बनाने के लिए नई पीढ़ी में इसके प्रति रुझान पैदा करने का उत्तर दायित्व हिंदी के विद्वानों का, साहित्यकारों का था जो उन्होंने नहीं किया। वह सिर्फ अपनी मेरी हिंदी तक सीमित हो के रह गए। आज देश की समस्त हिंदी पत्रिकाओं को वह साहित्यकार सहयोग दे रहा है चला रहा है जिसके नाम पर मठाधीश नाक भौं सिकोड़ना लग जाते हैं। अब तक की सबसे बड़ी और लोकप्रिय हिंदी की पत्रिकाओं को बंद करने का अप्रत्यक्ष श्रेय भी इन्हीं नामी-गिरामी लोगों को दिया जाता है। अपनी राजनीतिक जोड़-तोड़ के कारण यह बड़े-बड़े सरकारी पुरस्कार हड़प कर जाते हैं या अपने परिचितों को दिलवा देते हैं। इनकी पुस्तकें इतनी महंगी होती हैं जिससे आम आदमी इन्हें पढ़ नहीं पाता, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाता। यह पुस्तकें बड़ी-बड़ी अलमारियों में लाइब्रेरियों में बंद होकर रह जाती हैं। फिर भी इन्हें बड़े बड़े सरकारी पुरस्कार प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी भाषा ऐसे साहित्य का क्या अर्थ रह जाता है जो आम आदमी आम पाठक तक नहीं पहुंच पाता,और वह कैसे लोकप्रिय भाषा और लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में आ जाता है समझ से परे की बात है। इन स्वाधीनता के पिच्चत्तर वर्षों में जिस हिंदी का नाम भाषा के कारण कभी विरोध बड़े जोर शोर से विरोध होता था वह आज देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक बोली जा रही है, लिखी जा रही है, पढ़ी पढ़ाई जा रही है। और जितना हिंदी भाषा बोली के रूप में, भाषा के रूप में आज देश को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य कर रही है उतना किसी अन्य माध्यम से नहीं हो रहा है। देश में अंग्रेजी फारसी का जो वर्वचश्व् पिच्चत्तर वर्ष पहले था उसे हिंदी ने अपने अपनी लोकप्रियता के कारण ही हाशिए पर ला दिया है। इसी लोकप्रियता को देखकर किसी ने कहा है “हिंदी में हैं प्राण सूर के इसमें हैं तो तुलसी के राम, इसको गाकर नाची मीरा इसमें बसते हैं घनश्याम।”
हिंदी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हमारे देश में चार-चार पदों को सुशोभित कर रही है जैसे राष्ट्रभाषा, राजभाषा, राज्य भाषा और संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली संपर्क भाषा। इसे विज्ञान तकनीकी और प्रशासनिक भाषा के रूप में आगे लाना है पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसके अधिक से अधिक प्रयोग, लोकप्रियता के लिए कि यह सरल, सुबोध, बोधगम्य हो और भाषा ऐसी हो जो सबकी समझ में आए। दो चार बुद्धिजीवियों के समझ में आने से कोई भाषा राजभाषा, राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती यह हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। राजभाषा के रूप में इसमें कार्य करना, इसका प्रचार प्रसार करना हमारा संवैधानिक अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है। देश को एकता के सूत्र में पिरोने का एक ही रास्ता है हिंदी भाषा से ही होकर गुजरता है अन्य कोई नहीं।
हिंदी भावात्मक भाषा है जिसे भारत का पर्यायवाची कहा जा सकता है। अपनी सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि को ऊँचा उठाने तथा इसके विश्व में प्रचार प्रसार का कार्य हम हिंदी भाषा तथा उसके साहित्य से ही कर सकते हैं । यदि हम सिर्फ हिंदी को देश के लोगों के अंदर से तोड़ दें तो देश को तोड़ना बहुत आसान हो जाएगा। देश की मजबूती, समृद्धि हिंदी भाषा के माध्यम से ही कायम रह सकती है। हिंदी को खतरा अंग्रेजी से उतना नहीं है जितना हिंदी के व्यवसायियों, व्यापारियों, दलालों से है। हिंदी के नाम पर यह लोग सरकारी पैसे से ऐश करते हैं, विदेश यात्रा करते हैं पर नई पीढ़ी को हिंदी में उसकी साहित्य की धारा में लाने के लिए कुछ नहीं करते। इस पर भी हिन्दी गत दशकों की यात्रा गंगा की तरह बहती, पवित्र निर्मल शब्दों की, भाषा साहित्य की यात्र रही है। इसको सुंदर संस्कृति के रूप में पल्लवित पुष्पित होते रहने के प्रयास किए जाने चाहिए। नई पीढ़ी को हिंदी की मुख्यधारा में लाकर इसके भविष्य के पर्यावरण को और भी सुंदर और शुद्ध बनाने के सभी को प्रयास करने चाहिए। हिंदी हिंदी चिल्लाने से हिंदी का भविष्य उज्जवल नहीं होगा इसके लिए हम सभी को निस्वार्थ भाव से काम करना होगा। तभी यह सुंदर लोकप्रिय बनेगी जिस पर हमारी सभ्यता संस्कृति की ही नहीं हमारे समग्र विकास समृद्धि उन्नति की सुंदर इमारत खड़ी हो सकेगी। देश में समय समय पर आयोजित हिंदी सम्मेलनों का प्रायस होना चाहिए कि हम लोगों में हिंदी और उसके साहित्य के प्रति सम्मान की भावना भर सकें,ऐसा देश की सभी भाषाओं को सम्मान देते हुए करें। अंत में मैथली शरण गुप्त जी की इन खूबसूरत खूबसूरत पंक्तियों का उल्लेख अवश्य करना चाहूंगा “मानस भवन में आर्य जन जिनकी उतारें आरती,भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।”
हेमचंद्र सकलानी
विद्यापीठ मार्ग – विकास नगर
देहरादून 248198