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अयोध्यापूरी धाम के पौराणिक परिचय

          मैं अयोध्या हूं। सृष्टि विकास के पूर्व में केवल जल ही जल था तथा जल से स्थल निर्माण के क्रम में मैं यानी कि अयोध्या का उदय सर्वप्रथम हुआ तथा सृष्टिकर्ता भगवान श्री नारायण ने मेरे कानों में कहा था मैं तुम्हारी भूमि पर अवतरित हूंगा इस लिए मेरा महात्म्य और बढ़ गया और इस पावन नगरी को समस्त भूमंडल अजनाव वर्ष के हृदय कहा जाने लगा। उस समय जो राजा जम्बूद्वीप, भारत भूमि से राज करता वो समस्त भूमंडल पर उनका आधिपत्य रहता था क्यों कि उस समय एक ही सत्ता एक ही शाशन हुआ करता था।

अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के अधिनायक सृष्टि रचयिता, प्राणनाथ,भगवान श्री नारायण बैकुण्ठनाथ ने बड़ी बारीकी और सिद्धत से मेरी भूमि और इसके आस-पास के रचनाओं, वातावरण को तैयार किया था। सृष्टि विस्तार के क्रम में भगवान नारायण के नाभिकमल से  ब्रह्मा जी का जन्म हुआ, ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि ऋषि हुए, मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप जी, कश्यप जी के पुत्र विवस्वान सूर्य जिनसे चला महाप्रतापी सूर्य वंश जिसका वर्णन हम आगे करेंगें। विवस्वान सूर्य के पुत्र श्राद्ध देव मनु ने इस पृथ्वी जिसका पौराणिक नाम अजनाव वर्ष पर सृष्टि का प्रधान कार्यालय बनाने के लिए भगवान नारायण विष्णु जी से मुझे मांग लिया तदुपरांत सृष्टि विस्तार एवं अन्य रचनायें यहीं से प्रारंभ की गई।

मैं अयोध्यापुरी सभी नदियों में श्रेष्ठ सरयू नदी के दाहिने तट पर दिव्य सोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अति खूबसूरती मधुर मनोरमता के साथ बसा हुआ हूँ। हमारी परिधि 84 कोस में है तथा मेरे नगर के चारो दिशाओं में चार पर्वत थें। पूर्व में शृङ्गराद्रि पर्वत, पश्चिम में निलाद्रिक पर्वत, उत्तर में मुक्ताद्रिक पर्वत और दक्षिण में मणिकूट पर्वत। यह चौरासी कोस में सुंदर वन, उपवन, नदियों तथा पशु पक्षियों समेत दिव्य आत्माओं के जन्म से यह धरती पल्लवित और पुष्पित हो रही थी। किसी के साथ अन्याय नहीं सभी का धर्मपूर्ण आचरण, व्यवहार तथा गतिविधियों में समानता सहजता हर तरफ व्याप्त थी। सभी आनंद कुशल मंगल से जीवन यापन कर रहे थें। मैं सदा से ही अपराजित रही हूँ आज तक कोई शत्रु मुझे जीत नहीं सका है कारण की भगवान श्री नारायण अपनी सुदर्शन से, देवाधिदेव महादेव श्री शंकर जी अपने त्रिशूल से और सृष्टि विस्तारक के मुखिया श्री ब्रह्मा जी अपनी बुद्धि कौशल से सदैव हमारी रक्षा करते हैं। मुझ पर तमाम हमले हुए, अनेकों यातनाएं को मैं झेली हूँ, कई बार मेरे अस्तित्व को बदल देने की कोशिश की गई फिर भी मैं अमर अजर आज तक वहीं के वहीं विद्धमान हूँ और प्रत्येक परिस्थितियों में मेरा निखार ही हुआ है। मुझे आठ नामों से पुकारा जाता है:- अयोध्या, अपराजिता, राजिता, सत्या, नंदनी, जया, चिन्मया,और हिरण्या।

मेरे संस्थापक महाराज मनु का जन्म यही अयोध्या के ही माटी में हुआ था तथा वे सत सनातन वैदिक धर्म के संस्थापक थें। सत सनातन वैदिक धर्म पूरे सृष्टि का सबसे पुराना और प्रथम धर्म है जिसकी छावं तले धर्मपूर्ण आचरण, सत्य, सौहार्द, आपसी एकता पर आधारित दैनिक जीवन, समाज हित और उच्च आदर्श मूल्यों की प्रधानता है। यह धर्म संपन्नता में संरक्षक, व्यग्रता में शांतिदायक, चिंताओं में हिम्मत धैर्य, और शोक में सांत्वना देने की शिक्षा के साथ-साथ मानवता की मिसाल को उस तरह प्रतिपादित करता है जैसे पानी का धर्म और कर्त्तव्य है जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, ऊंच-नीच का भेदभाव किये बगैर निस्वार्थ और समत्व भाव से सभी का प्यास बुझाना तथा अपनी उपयोगिता को सभी के लिए एक समान मापदंड पर सहज और सुलभ होना ठीक उसी प्रकार सत सनातन धर्म भी यही बतलाता है तथा समता एवं माधुर्य प्रेम का सिख देता है। जिस धर्म अंतर्गत विचारशीलता, दूसरे मजहबो, जाती एवं मनुष्य विशेषो में बेबुनियाद तर्क के सहारा लेकर विरोध होता है वह धर्म अनंत काल तक प्रिय नहीं रह सकता।

मरे भूभागों पर तीन ओर पश्चिम, उत्तर और पूर्व दिशा से घेरे सरयू नदी कोई साधारण नदी नहीं है यह मोक्ष प्रदान करने वाली साक्षात जल रूपी ब्रह्मा है तथा सभी तीर्थो का सदा सरयू में निवास रहता है और सरयू में स्नान करने से सभी तीर्थों का पुण्य फल प्राप्त हो जाता है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी द्वरा भगवान विष्णु के प्राप्ति के लिए घोर तप के उपरांत जब प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए तो ब्रह्मा जी के अपने प्रति इस अपार प्रेम और निष्ठा को देख गदगद हो गए और नेत्रों से प्रेमाश्रु छलकने लगे तभी ब्रह्मा जी ने उस अश्रुओं को अपने कमंडल में धारण कर लियें और मान सरोवर में इस पवित्र जल को संचित कर रख दिये। लंबे समय बाद वैवस्वत मनु के पुत्र और श्री राम जी के कई पीढ़ी पूर्व के वंसज राजा इच्छवाकु ने नगर में कोई जल के मुख्य स्रोत न होने के कारण अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी से अनुनय-विनय कर के मेरी भूमि अयोध्या पर एक नदी लाने को आग्रह किये। संत तो बड़ा दयालु तथा सामर्थवान होते है यदि वे प्रसन्न हो गए तो उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वशिष्ठ जी अपने पिता ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर के सरयू नदी को हिमालय से उद्गम स्रोत निकालकर उत्तरी आर्यवर्त (भारत) के गंगा मैदान से बहाते हुए तथा तीन ओर से सरयू की जल धारा अयोध्या को परिप्लावित करते हुए वर्तमान नगर बलिया और छपरा के बीच में गंगा नदी में मिल कर फिर आगे पटना, मुंगेर, भागलपुर सहित कई ग्राम, नगरों, प्रदेशों को तृप्त करते हुए सागर में जाकर विलीन हो जाती है।

जगदीश्वर ने संसार में चार प्रकार के जीवों को बनाया है- अण्डज, पिण्डज, ऊष्मज तथा स्थावर। जिस जीव की उत्पत्ति पिंड से हुई वह पिंडज कहलाया तथा प्रकाश के स्रोत के माध्यम से जिस जीव की उत्पत्ति हुई वह ऊष्मज कहलाया। जिसका जीवनकाल क्षणभंगुर तत्क्षण समाप्त होने वाला है एवं जो जीव बीजस्वरूप अस्थायित्व को प्राप्त हुआ वह स्थावर कहलाया। सृष्टि में इन चार प्रकार के जीवों का स्थायित्व विभिन्न प्रकार के रहा है तथा यह कुल मिला के 84 लाख योनियों में विभक्त होते है यह बात अलग है कि सृष्टि में मानव समूह का सर्वोपरि स्थान रहा है जो आदि-अनंतकाल से अपनी एकात्म सत्ता से अपने ही अंदर व्याप्त चैतन्यता के प्रारूप का विग्रह/साक्षात्कार  करता आया है। इसका कारण है कि जब भी मानव जीवन प्राप्त करता है तो प्रकृति की संपूर्ण विधाओं से परिपूर्ण होता है, क्योंकि वे चैतन्य जीव हैं जिनके पास स्वच्छंद मन और बुद्धि है तथा सत्य स्वरूप परमात्मा का अंश आत्मा मौजूद है। अर्थात इन 84 लाख योनियों में कोई भी जन्मा जीव अगर मेरे अयोध्यापुरी में शरीर का त्याग करता है तो उसे निश्चित ही परमधाम मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाएगा।

मैं अयोध्या इस अजनाव वर्ष जम्बू द्वीप के भारत खण्ड से सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे उनके घूर्णन उनकी महत्वता तथा खगोल ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ पूरे अजनाव वर्ष में सभ्यताओं के फलते-फूलते विकसित होते कई उतार चढ़ाव देखें हैं।

समस्त संसार वासी मनुष्यों का सबसे प्राचीन और मूल धर्म सत सनातन वैदिक धर्म ही है तथा इसी से फिर कई धाराएं फूटी। समस्त संसार वासी के  पूर्वज ऋषी मुनि ही है और वे सभी उन्हीं के सन्तान है,भीष्म जैसे दृढप्रतिज्ञ महापुरुष के परम्परा में जन्म हुआ है। गंगा को पृथ्वी पर उतारने वाले राजा भगीरथ जैसे दृढनिश्चयी महापुरूष का रक्त सभी में बह रहा है। समुद्र को भी पी जाने वाले अगस्त ऋषि का सभी वंसज है। दुर्वासा ऋषि, चंद्रमा मुनि, दत्तात्रेय ऋषि, मतंग ऋषि, पराशर ऋषि, भारद्वाज ऋषि, कपिल मुनि, समीक मुनि, और भगवान नारायण के छाती में प्रहार करने वाले भृगु ऋषि और अत्यंत बलशाली पराक्रमी फरसाधारी परशुरामजी जी जिन्होंने इस भूमि पर अपने ज्ञान, विवेक, कौशल से आने वाली अनंत पीढ़ियों को लोक हित समाज हित का ज्ञान दिया।

वेदव्यास, बाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, कबीर जैसे समाज के दर्पण दिखाने वाले महान महाभूतियों ने इस धरती पर जन्म लिया हो।

श्री राम और श्री कृष्ण की अवतार भूमि भारत में जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते है, वहां मानव सभ्यता ने प्रफुल्लित हुआ है तथा जिसके शौर्य पराक्रम ने पूरे विश्व को ज्ञान दिया है वह भारत भूमि कोई साधारण भूमि नहीं है।

हमने विदेशी आतताइयों को भारत लूटते हुए देखीं हूँ और भारत माता के लाज बचाने वाले लाखों वीर सपूत क्रांतिकारियों को लड़ते देखी हूँ जिन्होंने देश रक्षा के लिए अपने जान अपनी निजिगत हितों के परवाह किये बगैर समर में कूद बहादुरी का परिचय एवं प्रेरणा दिया। वीर कुवंर सिंह, झांसी की रानी,तात्या टोपे, भगतसिंह, खुदीराम बोस, मंगल पांडेय, सुखदेव, बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल, सरोजनी नायडू सहित लाखो वीरों जिनका नाम इस पटल से लेना संभव नहीं है वे लोग वतन के हिफाजत के लिए मर मिटे। वह 490 वर्ष लगभग पाँच शताब्दी कैसे राम जन्मभूमि विवादित मुद्दा बना रहा यह भी देखी हूँ। राजा परीक्षित को जब तक्षक सर्प के दंश से सातवें दिन मरने का श्राप लगा तो समीक ऋषि खिन्न होकर अपने पुत्र श्रृंगी ऋषि से कहें जिस परम भागवत राजा परीक्षित को भगवान नारायण ने अश्वत्थामा के चलाये अस्त्र से रक्षा करने के लिए उसके माँ उतरा के गर्भ में जाके उस बालक के प्राणों को रक्षा किये उस परम वैष्णव को सातवें दिन मरने का इतना बड़ा श्राप दे दिया ये तुमने ठीक नहीं किया क्योंकि अब इस भारत भूमि को परीक्षित जैसे धार्मिक धर्मनिष्ठ राजा नहीं मिल सकता। अब जो राजा होंगें वे धर्मनिरपेक्षता के सिंद्धान्त पर चलेंगें और उनका धर्म-कर्म से कुछ विशेष मतलब नहीं होगा। जब राजा धर्मात्मा नहीं होगा तो प्रजा में भी धर्म लुप्त होगा क्योंकि जैसा राजा तथा प्रजा। जब प्रजा धर्मनिष्ठ नहीं होगी तो वर्ण संकरता फैलेगी, आपसी, एकता, सत्य, सौहार्द, प्रेम, भाईचारा, सहयोग, ईमानदारी का अभाव होगा और ये सब सारे दोष का कारण तूँ बनेगा बेटा। पर जो होना था से हो गया आखिर होनी को सृष्टि के मालिक नारायण के सिवा कौन टाल सकता पर वो भी ऋषि-महात्माओं के वचन मिथ्या न हो तथा उनकी महिमा बरकरार रखने के लिए होनी को हो जाने दिया था तथा सुकदेव जी द्वरा परीक्षित के साथ-साथ मानव जगत के आत्मिक कल्याण के लिए सात दिन श्रीमद्भागवत कथा श्रवण कराया उससे सम्पूर्ण मानव को आज तक फायदा हो रहा है।

कहते हैं पश्चताप से पूर्व में किये गए किसी कार्यो के परिणाम को बहुत हद तक आत्मिक शुद्धि किया जा सकता है तथा उससे सिख लेकर वर्तमान भविष्य को सुधारा जा सकता है। श्रृंगी ऋषि ने जब अपनी गलतियों पर पश्चताप, विचार किये तो आज उसी का परिणाम है कि मुद्दत बाद भारत भूमि को धर्मपूर्ण धर्मनिष्ठ राजा श्री नरेंद्र मोदी जी मिले है तथा यह मंगलकारी, अति कल्याणकारी संयोग ही है कि मैं यानी कि अयोध्या जिस उत्तर प्रदेश राज्य के परिसीमा में आती हूँ उसका भी राजा श्री योगी आदित्यनाथ जी जैसा धर्म के पुजारी, सत्य धर्म के झंडा पूरे दुनियां में फहराने वाला धार्मिक राजा मिला और दोनों ने मिलकर पाँच सौ सालों के विवादित राम जन्मभूमि मामले को  सहजतापूर्ण और दोनों पक्षो में आपसी एकता सौहार्द प्रेम को स्थापित करते हुए निपटारा करा दिया और उस स्थान पर भव्य ऐतिहासिक रामजन्मभूमि मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया। जब धर्म बढ़ती है तो भूमि पर के अधर्म अनैतिक दबाब हल्के हो जाते हैं और धरती माता चैन आनंद के श्वास लेती है जिससे प्रजा भी सुख समृद्धि को पाते हैं। धर्म का परचम लहराने वाले ऐसे दोनों नेतृत्वकर्ता महान विभूतियों पर मुझे गर्व है।

भारत साहित्य रत्न व राष्ट्र लेखक उपाधि से अलंकृत ©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार

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