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थर्डजेंडर: एक वंचित समुदाय की कहानी

थर्डजेंडर: एक वंचित समुदाय की कहानी

भारतीय समाज में थर्डजेंडर या किन्नर समुदाय को हमेशा हाशिए पर रखा गया है। इन्हें समाज की मुख्यधारा से बाहर और उपेक्षित कर दिया गया है। जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार रखने के बावजूद यह समुदाय सम्मान, पहचान और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने में लगा हुआ है। समाज की कठोर मान्यताएँ और रूढ़िवादी सोच ने किन्नर समुदाय को समाज के मुख्यधारा से बाहर धकेल दिया है, और उनका अस्तित्व लगभग नकारा जा चुका है। इस समुदाय के लोगों को अपनी पहचान बनाने, मानवीय अधिकारों को हासिल करने और एक सम्मानजनक जीवन जीने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। किन्नर समुदाय के सबसे बड़े संघर्ष की शुरुआत परिवार से होती है। जब कोई बच्चा थर्डजेंडर के रूप में जन्म लेता है, तो माता-पिता के लिए इसे स्वीकार करना बहुत कठिन हो जाता है। समाज की आलोचना और अस्वीकार्यता के डर से वे अपने बच्चों को छुपाकर रखते हैं, और उन्हें लगता है कि यह बच्चे समाज से बाहर हैं और अस्वीकृत हैं। इस प्रकार, माता-पिता को अपने बच्चों के साथ उन सामाजिक बंधनों और असमानताओं का सामना करना पड़ता है, जो कई बार इन बच्चों के लिए अभिशाप बन जाती हैं। किन्नर बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना भी एक बड़ा संघर्ष बन जाता है। स्कूलों में दाखिला मिलना कठिन होता है, और अगर किसी कारणवश उन्हें दाखिला मिल भी जाता है, तो वे अपने साथियों द्वारा ताने और मजाक का सामना करते हैं। उनके अस्तित्व को सवालों के रूप में देखा जाता है, जो उनके आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचाता है और उनके भविष्य को अंधकारमय बना देता है। यही स्थिति रोजगार के क्षेत्र में भी बन जाती है। किन्नर समुदाय के लोगों को नौकरी प्राप्त करने में भी कठिनाई होती है, और यदि किसी तरह से नौकरी मिल भी जाती है, तो उन्हें सहकर्मियों द्वारा भेदभाव और तानों का सामना करना पड़ता है, जो उनके आत्मविश्वास और करियर को प्रभावित करता है। मानसिक और शारीरिक कष्ट उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में प्रगति करने से रोकते हैं। किन्नर समुदाय को समाज में बहिष्कृत किया जाता है और वे रोज़ इस अस्वीकृति और उपेक्षा का सामना करते हैं। भारतीय समाज की परंपराएँ और सांस्कृतिक मान्यताएँ उन्हें असामान्य वर्ग मानती हैं, जिसके कारण यह समुदाय समाज से बाहर और अलग थलग रहता है। उनके आत्मविश्वास में गिरावट आती है और वे मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से परेशान होते हैं। सामाजिक समावेश की जगह वे अलगाव का शिकार हो जाते हैं। इस बहिष्कार के परिणामस्वरूप उनका आत्मसम्मान टूट जाता है और वे समाज में अपनी जगह नहीं बना पाते। इन समस्याओं का समाधान तब ही संभव है, जब समाज का दृष्टिकोण बदला जाए। हमें यह समझना होगा कि हर व्यक्ति को समान अधिकार मिलना चाहिए, चाहे वह किसी भी लिंग, पहचान या सामाजिक वर्ग से हो। किन्नर समुदाय को समान अवसर, शिक्षा, रोजगार और समाज में सम्मानित स्थान दिलाने के लिए हमें उनके अधिकारों का सम्मान करना होगा और उन्हें हर क्षेत्र में समान अवसर देने होंगे। इसके लिए समाज, सरकार और माता-पिता को मिलकर कदम उठाने होंगे ताकि किन्नर समुदाय के लोग अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें और एक सम्मानजनक जीवन जी सकें। यह समय बदलाव का है। किन्नर समुदाय को समान अधिकार मिलना चाहिए, और इसके लिए हमें अपने समाज की मानसिकता बदलनी होगी। हमें इन्हें सम्मान देना होगा और इनके अस्तित्व को समाज के हर हिस्से में मान्यता देनी होगी। समाज के हर क्षेत्र में किन्नर समुदाय को शिक्षा, रोजगार और समान अवसर देने के साथ-साथ उनके मानवीय अधिकारों का सम्मान करना होगा। यह केवल किन्नर समुदाय की लड़ाई नहीं है, बल्कि समाज के समग्र विकास और सामाजिक न्याय की लड़ाई है। अगर हम समाज की सोच को बदलने में सफल हो जाते हैं, तो हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ेंगे, जो समानता, सम्मान और मानवाधिकार की दिशा में कदम बढ़ा सके। यह समाज का कार्य है कि हम किन्नर समुदाय के संघर्ष को समझें और उन्हें वह सम्मान और अधिकार दें, जिसके वे हकदार हैं। यह सिर्फ एक समुदाय का सवाल नहीं है, बल्कि हमारे समग्र समाज के लिए एक ऐसा कदम है, जो समानता, सम्मान और मानवाधिकार की ओर एक ठोस दिशा में आगे बढ़ेगा।

गरिमा भाटी “गौरी”
सहायक आचार्या, रावल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन,
फ़रीदाबाद, हरियाणा।

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