लघुकथा समझ
लघुकथा
समझ
सोहनपुर के पास बड़ गांव में सोमा रहती थी। वह सोहनपुर के कुछ घरों की मेट थी। जैसा भी काम मिलता वह राजी होकर करती।
एक दिन मालिक के घर मेहमान आकर ठहरे।सोमा उस घर में कपड़े धोती थी। एक बार काम करके चली गई।हर दिन की तरह शाम को फिर आई और कपड़े समेटने चली।देखा छत पर कपड़े नहीं हैं।मालकिन ने इधर-उधर नजर डाली। मौसी अंदर सुन रहीं थीं।आकर बोलीं मैं ले आई। मालकिन ने कहा, अरे! आप कब ले आईं,पता ही नहीं चला। सोमा ने कहा,यह तो मेरा काम है साहब।आज मुझे आने में देर हो गई। रास्ते में वो राधा क्या मिल गई, बातें ही करती रही। मौसी बोली, अरे ! मुझे नहीं पता था। सोचा, निशि लाएगी तो चलो मैं ही ले आती हूं।बस अभी थोड़ी ही तो देर हुई।अभी रखे ही तो हैं। बोलती हुई मौसी अंदर चली गई। पीछे-पीछे सोमा चली। झटपट तहें बनाने लगी। जाते- जाते बोली अभी तो यहीं हो न।कल कपड़े मत धो लेना। मौसी को हंसी आ गई। बोली- तो क्या हुआ?वह बोली नहीं साहब। मालकिन के मेहमान मेरे मेहमान! मैं आधा अधूरा काम नहीं करती। मौसी अचरज से देखती रह गई। पास में बैठा अशोक धीरे से बोला ये आखिर में टिप लेने की चाल है।
हफ्तेभर बाद वह कपड़े समेटने आई तो मौसी जाने की तैयारी कर रही थी। सोमा के हाथ में रुपए थमाते हुए बोली मेरी निशि का ऐसे ही ध्यान रखना । तुम बहुत अच्छी हो सोमा! सोमा ने जल्दी से हाथ हटा लिया और हाथ जोड़कर बोली -मुझे माफ़ करो साहब । मौसी ने कहा-बहुत सेवा की तुमने। ये तो ईनाम है तुम्हारा ।मैं खुशी से दे रही हूं। वह बोली सेवा तो मेरा काम है। सेवा का मेवा देनेवाला ऊपर बैठा है।वो देगा दस बार। आप से नहीं लूंगी साहब।
सोमा दृढ़ थी और मौसी अवाक्। अशोक की आंखें फटी की फटी रह गईं।
अक्षयलता शर्मा