आलेख बुजुर्गों की सेवा
आलेख
बुजुर्गों की सेवा
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वर्तमान में बुजुर्गों की सेवा के बारे सोचकर मन कसैला हो जाता है। आधुनिकता की अंधी दौड़, बढ़ते एकल परिवार की बलबेदी पर यदि किसी को सर्वाधिक दीन-हीन, असहाय और बेबस किया है तो वो हैं हमारे बुजुर्ग। अब कुछ लोग इसका विरोध भी करेंगे और तमाम तर्क देंगे, तो मैं उन सभी के तर्कों को बिना जाने समझे स्वीकार करता हूँ, लेकिन सिर्फ अपवादों तक, उससे आगे नहीं।
बुजुर्गों सेवा के लिए सबसे पहले हमें अपने अपनी संस्कृति, परंपरा और मर्यादा के साथ संवेदनशील होना पड़ेगा। अपने परिवार की पिछली दो पीढ़ियों का अनुसरण करना चाहिए। कि कैसे हमारे पिता, बाबा ने अपने अपने माता-पिता दादा-दादी और परिवार के अन्य बुजुर्गों की सेवा/देखभाल की थी। सेवा से आशय शारीरिक सेवा से ही नहीं है, बल्कि उनका उनकी जरुरतों के हिसाब से ध्यान रखने के साथ उन्हें यथोचित सम्मान और महत्व देने से भी है। बुजुर्गों की भी भावनाएं होती, उनका अनुभव हमसे बहुत ज्यादा होता है, उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों का सामना किया होता है। इसलिए उनसे सलाह मशविरा भी करते रहना चाहिए, समाधान माँगते रहना चाहिए, ताकि वे उपेक्षित और अपमानित महसूस कर कुंठित न हों, उनकी जरूरतें यथा, वस्त्र, भोजन, दवाइयाँ यथा समय उपलब्ध कराते रहने के साथ सगे संबंधियों, रिश्तेदारों आदि से जोड़े रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। वर्तमान में इसकी कमी भी आजकल बहुतायत में हो रही है। अपने बच्चों को अपने बुजुर्गों से घुलने मिलने देना बहुत आवश्यक है, इससे आगे चलकर आपको भी फायदा होगा। आज के बुजुर्गों की एक बड़ी समस्या है अकेलापन। इसलिए यथासंभव आप उन्हें समय दें, उनका हाल-चाल जानने के अलावा अन्य मुद्दों पर भी चर्चा करते रहें। प्रयास कीजिए कम से कम एक समय का भोजन उनके साथ करें या जब वे भोजन करें तो आप उनके सामने रहें। घर से बाहर जाते समय उनसे मिलकर जायें और वापसी में पहले उनसे ही मिलने का प्रयास किया जाय तो बेहतर होगा। हम लोग सोचते हैं कि ऐसा करने से भला क्या हो जाएगा? तो विश्वास कीजिए कि इससे उनकी चिंता दूर होगी। भले ही हम कितने बड़े और जिम्मेदार हो गये हों, पर अपने बुजुर्गों की दृष्टि में बच्चे ही रहते हैं। जब भी हम आप बाहर होते हैं, उन्हें हमारी चिंता उन्हें बनी ही रहते हैं।
हालांकि यह उचित है या नहीं, लेकिन मैं अपनी बात बताता हूँ कि हमारे पिताजी हमारे ताऊ के बराबर कभी नहीं बैठे, आपको आश्चर्य होगा कि मेरी शादी की बात करने यदि कोई पिताजी के पास आता था। तो पिताजी उसे सीधे ताऊजी के पास जाने की सलाह देते थे। एक वाक्या बताना चाहूँगा कि एक बार तो एक लोग की जिद के कारण पिता जी उन्हें साथ लेकर अपने कार्य स्थल मिहींपुरवा ( बहराइच) से अपने साथ 150 किमी. दूर गाँव तक लेकर आ गये थे और ताऊ जी से सारी बात बताकर रात ही वापस हो गए थे। पिताजी की मृत्यु (2000) पर सबसे ज्यादा परेशान ताऊजी हुए। क्योंकि वे पिता जी को भाई नहीं बेटा मानते थे। पिताजी के निधन के बाद ताऊजी ने ही मेरी शादी (2001) की। जिसकी चर्चा पूरे क्षेत्र में हुई क्योंकि इतनी भव्य व्यवस्था तो उन्होंने अपने बेटे की शादी में नहीं की थी।
आपको शायद यकीन नहीं होगा किन्तु सत्य तो यह है कि ताऊजी की मृत्यु (2023) तक मैं खुद भी ताऊजी के सामने बैठने भर से डरता था, जब वे खुद कह देते तो मजबूरी होती थी, तब से सबसे पहले मैं ताई को आवाज देता था, मेरी आवाज़ सुनकर ताई जी (मृत्यु 2022) समझ जाती थीं। वैसे एक बात और भी है, कि मैं अपने माता-पिता के बजाय ताऊ ताई के साथ ज्यादा ही रहा और जब तक ताऊ- ताई रहे, मैं हमेशा निश्चिंत रहा, पिता जी के न रहने पर मुझे उतना दुःख नहीं रहा, जितना ताऊ जी के न रहने पर। क्योंकि ताऊ जी की छत्रछाया आवरण जैसी हमेशा बनी रही, लेकिन ताऊ जी के न रहने पर पहली बार एक खालीपन महसूस हुआ।
एक उदाहरण के माध्यम से मैं अपनी बात को एक घटना के माध्यम से बताने का प्रयास करता हूँ, जो मैंने कहीँ पढ़ा है- एक आई. ए. एस. थे, जो कुछ भी करने से पूर्व अपनी चौरासी वर्षीया माँ से पूछते/आज्ञा लेते थे। एक बार उनके किसी मित्र ने इसका कारण पूछा और कहा कि करना तो तुम्हें ही सब कुछ है, फिर माँ से पूछने का क्या मतलब है? वे तुम्हें क्या बताती या लाभ-हानि समझा सकती हैं।तो उन्होने दिल को छूने वाला ज़वाब दिया। उन्होंने कहा कि मुझे पता है कि सब मुझे ही करना होता। लेकिन मेरे पूछने, बताने भर से मेरी माँ का भरोसा कायम है कि उनका बेटा उनसे बिना पूछे, बिना बताए कुछ कर ही नहीं सकता। बस! इतने भर से उन्हें जो खुशी मिलती है, वो लाखों करोड़ों खर्च कर भी मैं उन्हें नहीं दे सकता हूँ।
कहने का आशय यह है कि कि शारीरिक सेवा और सुविधाएँ तो हम आप अपनी सुविधा और व्यवस्था के अनुसार ही दे सकते हैं, लेकिन भावनात्मक सेवा में कोई धन, श्रम नहीं लगता। आज के बुजुर्गों की सबसे बड़ी पीड़ा उनकी उपेक्षा और अपमान है। जिस पर अंकुश लगना हम सबकी निजी तौर पर प्राथमिकता होनी चाहिए, अन्यथा हमारी उपेक्षा, अपमान और दुर्दशा और भयानक होगी। शायद अंतिम संस्कार के भी लाले पड़ जायें या लावारिसों की तरह ही होंगे।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश