लघुकथा: कर्तव्य बनाम अधिकार
लघुकथा: कर्तव्य बनाम अधिकार
“नमस्ते दीदी!”अचानक से नमिता ने घर में प्रवेश किया तो उसकी भाभी प्रज्ञा ने उसका स्वागत किया।
“नमस्ते! नमस्ते!कैसी हो भाभी?”नमिता ने उत्तर दिया।
“मैं ठीक हूँ दीदी।आप कैसी हो दीदी? आप बैठिए, मैं आपके लिए चाय बना कर लाती हूँ।”नमिता रसोईघर की तरफ बढ़ी।
“क्या भाभी? कुछ तो स्टैंडर्ड मेंटेन करो। चाय तो चवन्नी छाप लोगों की पहचान है। हाई स्टैंडर्ड लोग तो जूस पिलाते हैं। तुम्हें याद नहीं भाभी, जब तुम लोग मेरे घर आए थे तो मैंने आप लोगों को लीची का जूस सर्व किया था।”प्रज्ञा ने ताना कसा।
“दीदी! जूस तो नहीं है घर में। मैं आपके भैया को फोन कर देती हूँ। वह और पापा जी बाजार गए हैं सामान लाने, बस आने ही वाले होंगे तो वह लेते आएँगे। बताइए, आप कौन सा जूस पियेंगीं? मैं वही मँगा देती हूँ।”प्रज्ञा ने मधुर वाणी में कहा।
“रहने दो भाभी! मैं सब समझती हूँ आपकी चालाकी। आप भैया के सामने यह दिखाना चाहती हो कि मैं खुद से कह कर ही अपनी खातिरदारी करवाना चाहती हूँ। अगर आपकी इच्छा होती तो आप पहले से ही सब कुछ तैयार रखतीं । आखिर घर में तो आपकी ही चलती है। जब से माँ हमें छोड़ कर गई हैं, आपके तो ठाठ हैं। वाह भई वाह।”नमिता अपनी ही रौ में बोले जा रही थी।
“बिल्कुल चलेगी। इसकी ही चलेगी। जब घर की सारी जिम्मेदारी मेरी बहू निभाती है तो घर के निर्णय भी यही लेगी।”प्रज्ञा के ससुर जो अभी बाजार से लौटकर दरवाजे तक ही पहुँचे थे, ने जवाब दिया।
“पापा! आप मेरे पापा होकर भी इसका पक्ष ले रहे हो।”नमिता के स्वर में नाराजगी थी।
“बेटा! मैं न सिर्फ आपका और राहुल का पापा हूँ बल्कि अपनी बहू और दामाद का भी पापा हूँ और दूसरी बात जब अपने ससुराल में निर्णय लेने के लिए आप स्वतंत्र हो तो यहाँ निर्णय लेने के लिए प्रज्ञा बहू स्वतंत्र है। कर्तव्य और अधिकार सदा साथ चलते हैं बेटा। जो कर्तव्य निभाएगा उसे ही अधिकार भी मिलते हैं।”प्रज्ञा के ससुर जी ने जवाब दिया तो नमिता चुप हो गई।
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ उत्तर प्रदेश