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हिंदी साहित्य की सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक भूमिका

हिंदी साहित्य की सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक भूमिका

साहित्य का मूल तत्त्व सभी का हितसाधन है। साहित्य साधक अपने मन में उठने वाले भावों को जब लेखनीबद्ध करके हिंदी भाषा के माध्यम से प्रकट करता है तब वह ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति के रूप में साहित्य कहलाता है। हिंदी साहित्य अतीत से प्रेरणा प्राप्त करता है, वर्तमान का चित्रण करता है तथा भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्यकारों ने अपने भावों को अपनी रचना के माध्यम से एक आकार दिया। यही साहित्यिक रचना समाज के नवनिर्माण में पथप्रदर्शक की महत्वपूर्ण भूमिका निभायी तथा लोकतंत्र की स्थापना व इसके विकास में भी अपनी भूमिका का निर्वहन किया।

हिंदी साहित्य एक सशक्त माध्यम है जो समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। जहाँ एक तरह यह सत्य के सुखद परिणामों को चिन्हित करता है, वहीं असत्य का दुखद अंत करके शिक्षा प्रदान करता है। सुसंगठित साहित्य व्यक्ति तथा उसके चरित्र निर्माण में सहायक होता है। इसलिए समाज के नवनिर्माण में साहित्य की मुख्य भूमिका होती है। हिंदी साहित्य में सामाजिक दृष्टिकोण, सामाजिक मूल्यों तथा विश्वाशों को प्रतिविम्बित करने की शक्ति है। हिंदी साहित्य में सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने के साथ ही संस्कृतियों तथा संस्कारों को संरक्षित करने की शक्ति भी है। हिंदी साहित्यिक रचनाएँ सामाजिक तथा राजनितिक टिप्पणी के लिए एक मंच प्रदान करता है, जहाँ पाठकों को सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरणा मिलती है। हिंदी साहित्य के माध्यम से सामाजिक समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने तथा राष्ट्र में समता एवं न्याय का विकास करने की प्रेरणा मिलती है। हिंदी साहित्य की रचनाएँ अन्याय की और हमारा ध्यान आकर्षित करतीं हैं तथा काम जनसँख्या वाले समूहों के अधिकारों की बात उठाती है।

हिंदी साहित्य हमारे समाज को संस्कार प्रदान करने का कार्य करता है, महत्वपूर्ण जीवन मूल्यों की शिक्षा देता है तथा विभिन्न कालखंडों की विसंगतियों एवं विरोधाभासों को चिन्हित करके हमारे समाज को सन्देश देता है, जिसके द्वारा समाज में सुधार आता है तथा सामाजिक चेतना को गति प्राप्त होती है। सामाजिक व्यवस्था तथा राष्ट्र के विकास में साहित्य का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इतिहास गवाह है किसी भी समाज में या राष्ट्र में जितने भी परिवर्तन आये हैं उन सब में हिंदी साहित्य का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कबीरदास ने लिखा – “पत्थर पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़।” साहित्यकार समाज में फैली कुरीतियों, विषमताओं तथा विसंगतियों के बारे में लिखकर जनमानस को जागरूक करने का कार्य करता है। जब-जब हमारे समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट आयी है, तब-तब हिंदी साहित्य ने मार्गदर्शन का कार्य किया है। परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य का हमारे समाज तथा लोकतंत्र पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इसने अभिव्यक्ति के लिए स्थान दिया, समझ तथा सहानुभूति को बढ़ावा दिया तथा आलोचनात्मक विचारधार को उत्तेजित करने का कार्य किया।

साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। दर्पण सिर्फ वाह्य आकृतियों, विकृतियों तथा विशेषताओं का दर्शन कराता है, जबकि साहित्य हमारे समाज की आतंरिक विकृतियों तथा विशेषताओं को चिन्हित करता है। समाज और साहित्य में अन्योनाश्रित सम्बन्ध होता है। साहित्य समाज की खामियों को चित्रित करने के साथ साथ उनका समाधान भी प्रस्तुत करता है। यथार्थ चित्रण तथा सामाजिक प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति के माध्यम से हिंदी साहित्य हमारे समाज का नवनिर्माण करता है। तुलसीदस , सूरदास, कबीरदास, मल्लिक मोहम्मद जायसी, रहीम, रसखान से लेकर भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, दिनकर, निराला, प्रसाद तथा नागार्जुन तक की श्रंखला के रचनाकारों नें समाज के नवनिर्माण तथा उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अपनी अनुपम सशक्त रचनाओं के माध्यम से उन्होंने शासनतंत्र के खिलाफ जाकर सामाजिक नवनिर्माण के लिए कदम उठाये। सर्वहारा वर्ग के दर्द को अपनी रचनओं के माध्यम से उजागर किया। मुंशी प्रेमचंद कहते हैं – “जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है।“ प्रेमचंद नें अपनी सभी रचनाओं में गरीबों, किसानो, मजलूमों की संवेदना का बड़ी संजीदगी से चित्रण किया। बीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जनता का संचित प्रतिबिम्ब माना है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को ज्ञानराशि का संचित कोष कहा है। पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी साहित्य को जनसमुदाय के ह्रदय का विकास कहा है।

साहित्य समाज का केवल दर्पण ही नहीं होता, बल्कि उसका दीपक भी होता है, जो समाज में फैली कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा कुशासन को आलोकित करता है। साहित्य के आलोक से सामान में संचेतना का संचरण होता है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता व संस्कृति को वहाँ के साहित्य के माध्यम से जाना जा सकता है। किसी साहित्यकार नें यह लिखा है – “अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं हैं। मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है। ” हिंदी भाषा के साहित्यकारों नें अपनी लेखनी के माध्यम से भारत के गौरवशाली अतीत का चित्रण किया है, समसामयिक सामाजिक गतिविधियों का सूक्ष्म चित्रण तथा विवेचन प्रस्तुत किया है तथा इस प्रकार समाज का सदैव मार्गदर्शन किया है। तुसलीदास, कबीरदास, भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध जैसे अनेकानेक साहित्यकारों नें साहित्य के माध्यम से समाज में करुणा, सदाचार, मानवीयता, परोपकार तथा बंधुत्व की भावना को स्थापित करने का सन्देश दिया। “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” की मूल भावना को केंद्र में रखकर इन्होने साहित्य सृजन किया।

पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे जीवन मूल्यों तथा आदर्शों को प्रभावित किया है। पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति के चकाचौंध में हमारे समाज में हो विकृति पैदा हो रही है उसके निराकरण के लिए आज के दौर में उत्कृष्ट तथा मार्गदर्शी साहित्य सृजन का तकाजा है। यह आवश्यक है की हम साहित्य को नित नूतन आयाम दें, जिसके द्वारा हमारा प्राचीन वैभव पुनः कायम हो सके मुक्तिबोध के अनुसार – “अब अभिव्यक्ति से सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब”। कट्टरवाद के खिलाफ भी साहित्यकारों को अपनी कलम उठानी पड़ेगी। समाज के प्रति हिंदी साहित्य का ईमानदार तथा जवाबदेह होना अति आवश्यक है। हिंदी कविता समाज से तभी जुड़ सकती है जब वह अभिव्यक्ति, अनुभूति, प्रतीति के स्तर पर पाठकों की संवेदना को छू सके। भारतवर्ष में जब आधुनिक भारतीय भाषाओँ का उदय तथा विकास हुआ, तब भक्ति आंदोलन के कालखंड के साहित्य ने पुरे देश में सामाजिक एकता का सूत्रपात किया। भक्ति काव्य चाहे हिंदी भाषा में लिखा गया हो या किसी और भाषा में, सभी का एक ही स्वर था – “जात-पात पूछे नहीं कोई, हरी को भजै सो हरी को होई।” इसी प्रकार से स्वाधीनता आंदोलन के कालखंड में पुरे भारतवर्ष में एक ही स्वर गूंज उठा – “मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढाने, जिस पथ जाएँ वीर अनेक।” कहने का तात्पर्य है कि एक पुष्प की अभिलाषा ने भारतीयों की अभिलाषा का रूप ले लिया। तब जाकर अंग्रेजी राज का सूरज अस्त हुआ।

वर्तमान में हिंदी साहित्य-शिल्पियों ने देश की सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक स्थिति का मनोरम चित्रण प्रस्तुत किया है। कई साहित्यकारों ने भारतवर्ष के अतीत का गौरव गान किया है तो कईयों ने अपनी रचनाओं में ललकार तथा गर्जना के साथ बलिदान की संवेदना को उद्घृत किया है। कईयों ने वर्तमान सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक स्थिति की दुर्दशा का चित्रण किया है। राष्ट्रीयता की भावना के विकास में हिंदी के आधुनिक काल की रचनाओं का बहुत बड़ा योगदान है। लोकतान्त्रिक भावना से राष्ट्रवाद को सम्बल प्राप्त होता है। छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत का यह कथन तर्कसंगत है – “हमारा देश विशाल राष्ट्र की भावना तथा संकल्पना के वैदिक युग से परिचित रहा है। हिंदी साहित्य समाज तथा लोकतंत्र की आतंरिक तथा बाह्य प्रगति के लिए हमेशा से कल्पवृक्ष बना हुआ है। साहित्य ने हमेशा खड़े होकर पीड़ितों के आंसू पोंछे हैं। हमारा हिंदी साहित्य मानव को बाहर तथा भीतर से परिष्कृत करने का कार्य करता आ रहा है। हिंदी साहित्य तन तथा मन दोनों को सभ्य बनाता है। वर्तमान हिंदी साहित्य प्राकृतिक राष्ट्रीयता का मानवीकरण नहीं करता, बल्कि यह समाज तथा देश को सामाजिक संदर्भो के साथ चिन्हित करने का प्रयास करता है। किसी कवि ने लिखा है – “जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं। वह ह्रदय नहीं, वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। ”

भारतवर्ष में लोकतंत्र की स्थापना तथा विकास में हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता है। लोकतंत्र का अर्थ है “लोगों का शासन”। लोकतंत्र राजनैतिक व्यवस्था की सबसे अच्छी तरकीब है। लोकतंत्र को बनाने तथा उसे कायम रखने में हिंदी साहित्य की अति विशिष्ट भूमिका है। वर्तमान में लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली मात्र बन कर रह गयी है। हिंदी साहित्य लोकतंत्र को सांस्कृतिक-समाज के रूप में हासिल कर इसे एक उत्तम शैली के रूप में विकसित करना चाहता है। वर्त्तमान हिंदी साहित्य में लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना को लेकर स्पष्ट रूप से छटपटाहट दिखाई पड़ती है। आजादी के ७६ वर्ष पुरे होने के बाद भी रोटी, कपडा और मकान की समस्या का हल नहीं हो पाना, लोकतान्त्रिक व्यवस्था के वास्तविक चेहरा को प्रस्तुत करता है। आज के हिंदी साहित्य में इसके प्रति संवेदना तथा आक्रोश दिखाई पड़ता है। जहाँ आज का साहित्यकार अपने साहित्य में वर्तमान के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है, वहीं देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनितिक तथा लोकतान्त्रिक विसंगतियों पर प्रहार करता है। अपनी रचना के मध्य से हिंदी साहित्यकार सुधार की कामना करता है तथा पुनर्जागरण के लिए जनता का आह्वान करता है। लोकतंत्र को स्थापित करने और उसे बनाये रखने में हिंदी साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण साहित्य की भूमिका निर्विवाद है। स्वतंत्रता के पूर्व लोकतंत्र तथा स्वतंत्रता के पश्चात् लोकतंत्र में बहुत बदलाव आ चुका है। आज अपने देश में स्वतंत्र लोकतंत्र का प्रभाव हिंदी साहित्य में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। स्वतंत्र प्राप्ति के पश्चात् साहित्यकारों की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हुई है। वर्तमान में साहित्यकार पर जिम्मेदारी अधिक है। लोकतंत्र की पहचान जनता के सुख दुःख से होती है।

आज के लोकतंत्र और हिंदी साहित्य पर विचार-विमर्श करना समकालीन परिवर्तन के दृष्टिगत अनिवार्य हो गया है। किसी भी देश का साहित्य वहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक व्यवस्था का यथार्थ चित्रण होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हिंदी रचनाकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी। हिंदी साहित्य के कलमकारों ने सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक विकास में बाधक बने तत्वों को जीवंत रूप में साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है। सामाजिक तथा लोकतान्त्रिक चेतना को अभिव्यक्त करने का महत्वपूर्ण कार्य हिंदी साहित्य के साहित्यकारों ने कुशलता के साथ किया। आज हिंदी के साहित्यकारों पर बहुत अधिक जिम्मेदारी भी है। आज भी भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जनता लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए तरस रही है। हिंदी के कवियों ने इसके प्रति जनता को जागृत करने का कार्य किया ह। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने अपनी कालजयी कृति “रश्मिरथी” में लिखा है –

अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है।
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।
इस कारण से ही कौरवों और पांडवों का युद्ध हुआ।
जो भव्य भारतवर्ष के उत्कर्ष का कारण हुआ।

प्रेमचंद ने लिखा है – “साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।” साहित्यकार का जनसंपर्क तथा सोच व्यापक होता है। लेकिन आज के लोकतंत्र में साहित्यकारों की सोच बदल गयी है। आज का हिंदी साहित्यकार पद, लोभ, मोह, मुद्रा तथा साहित्यिक पुरस्कार पाने के लालच में अपने कर्त्तव्य से भटक गया है। रघुवीर सहाय की कविताओं में आज के लोकतंत्र की स्पष्ट झलक मिलती है। उनकी रचनाओं से स्पष्ट होता है की बहुत से परिवर्तन हुए है लेकिन जनता के दुःख-दर्द में कोई परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं है। उनका काव्य-संग्रह “आत्महत्या के विरुद्ध” में लोकतान्त्रिक मूल्यों के ह्रास का उल्लेख है। फणीश्वर नाथ रेणु ने अपने विख्यात उपन्यास “मैला आँचल” में लिखा है – “गरीबी और जहालत दो ऐसी बीमारी है, जिन्हे दूर करना बेहद जरुरी है। ” समाचार-पत्र जिन्हे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है, वह स्वयं लोकतंत्र की हत्या में शामिल हैं।

डॉ॰ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
भारतवर्ष – (पिन कोड 211001) व्हाट्सएप्प 9452252582

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