भाव पल्लवन
भाव पल्लवन —
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।”
प्रस्तुत पंक्तियाँ साहित्य शिरोमणि ‘गोस्वामी तुलसीदास जी’ द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के उत्तर काण्ड से उद्धृत की गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियों का आशय- “दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है, और दूसरों को पीड़ा देना अथवा उनके तन-मन को वेदना पहुँचाने का काम करना पाप के समान है।”
प्रस्तुत पंक्तियों में गोस्वामी जी के संत हृदय का अद्भुत भाव पल्लवन निहित है। कविकुल शिरोमणि गोस्वामी जी कहना चाहते हैं कि – चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाले आत्मा रूपी जीव को दुर्लभ मानव का जन्म मिलता है। तब उसे चाहिए वह दूसरों के हित के लिए दया-धर्म, करुणा, नैतिकता के भाव हृदय में धारण करे। कभी भी किसी को शारीरिक,मानसिक अथवा वाचिक रूप से पीड़ित करना या वेदना पहुँचाने का काम करना पाप करने के समान होता है। जैसे मैंने राह चलते लोगों को देखा है, बहुत से लोग गाय, कुत्ता, बैल, जैसे बेजुबान जानवरों को व्यर्थ में मारते-पीटते हैं। ऐसे ही किसी अशक्त वृद्ध जन का, अथवा किसी मजबूर व्यक्ति का अपमान करने में उन्हें जरा सी शर्म या संकोच नहीं होता। ऐसा करने वाले व्यक्ति निश्चित रूप से मानवीय मूल्यों से हीन, निर्दयी स्वभाव वाले, भोगी, विषय वासनाओं में लिप्त जैसे दुष्कर्मी आचरण वाले कहे जाते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों की पीड़ा देखकर उसमें अपनी खुशियाँ ढूँढतें है। सच में तो समाज में ऐसे व्यक्ति मानसिक रोगी होते हैं।
वहीं दूसरी ओर दूसरों की प्रसन्नता में अपनी खुशी का अहसास करने वाले सच्चे अर्थों में मानव कहलाने के योग्य होते हैं। ऐसे संत स्वभाव वाले व्यक्ति किसी अनजान की आँख में आँसू देखकर तुरंत उसकी पीड़ा मिटाने के लिए व्याकुल हो जाते हैं। येन- केन- प्रकारेण संकट ग्रस्त जीव का दुःख दूर करने में उन्हें आत्म संतुष्टि प्राप्त होती है।
इसी प्रसंग में मुझे एक कहानी याद आ रही है – एक संत गंगा में स्नान कर रहे थे। तभी उन्हें पानी में एक बिच्छू अपनी जान बचाने के लिए छटपटाता हुआ नजर आया। ऐसा दृश्य देखकर संत ने तुरंत बिच्छू को अपनी हथेली पर उठा लिया। लेकिन बिच्छू ने उन्हें डंक मार दिया, जिससे वह बिच्छू फिर से पानी पर गिर पड़ा और फिर जान बचाने के लिए छटपटाने लगा। तब उस परोपकारी संत ने अपनी हथेली में डंक लगने की परवाह नहीं की। वरन् उस बिच्छू की जान बचाने के लिए उसे दोबारा अपनी हथेली पर रखा, उसने फिर से उनकी हथेली पर डंक मार दिया। तीन- चार बार यही क्रम चलता रहा और अन्ततः वे उसकी जान बचाने में सफल हुए। और इस प्रकार से उन्होंने बिच्छू को जल से बाहर निकाल कर रेत पर छोड़ दिया।
संतजन स्वभाव वाले मानव सदैव परोपकार हित में लगे रहते हैं। कर्तव्यनिष्ठ सदाचरण के द्वारा जीवन में आने वाली समस्त जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे महापुरुष संतजनों का जीवन आचरण अनुकरणीय होता है।
अतः हमें चाहिए कि हम इस मानव शरीर को धारण करके निरंतर कर्तव्यनिष्ठ सदाचरण वाली जीवन शैली को अपनाएं। जिससे इस सकल सृष्टि में पलने वाले चराचर जीव जगत का कल्याण हो। संत गोस्वामी तुलसीदास जी इसी धर्म भावना की ओर इंगित करती हुई ये पंक्तियाँ गागर में सागर भरने के समान हैं। इसी प्रसंग में मुझे बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आती है –
दो मित्र एक साथ ईश्वरीय दर्शन के लिए नगर से बाहर यात्रा पर निकले। चलते-चलते उस गाँव में पहुँचें जहाँ पर महामारी का प्रकोप फैला था। पहला मित्र नाक भौं सिकोड़ते हुए जल्दी से उस गाँव से बाहर निकल गया और दूसरे ने गाँव में रहकर बीमार बेबस लोगों की सेवा सुश्रुषा करनी प्रारंभ कर दी। तीर्थ स्थल पर पहुँचनें पर पहले मित्र ने दूसरे मित्र को सबसे पहली पंक्ति में भगवान के पास खड़े देखा। उस दृश्य को देखकर पहला विस्मय से भर उठा। और वह जान गया कि दूसरों की पीड़ा हरने वाले मेरे उस मित्र की यात्रा भगवान ने स्वयं स्वीकार कर ली है। अतः दूसरों को सुख पहुँचाने वाले कर्तव्य कर्म व्यक्ति की आत्मिक उन्नति में सहायक होते हैं। ऐसे परहित कर्म करने वाले मनुष्यों को ईश्वर की प्रसन्नता एवं आशीर्वाद सहज ही प्राप्त हो जाता है।
इसलिए हमारे शास्त्रों एवं ग्रंथों में वर्णित है कि परहित की भावना मानव के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक रूप से सुख-शांति, समृद्धि प्रदान करने वाली भावना होती है। श्रेष्ठ कर्तव्य कर्मों को करने वाले मानव शनै-शनै उन्नति एवं प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं। वृद्ध माली जब अपने हाथों से पौध लगाता है, तब वह यह नहीं सोचता कि दस बीस साल बाद इसके फल मुझे खाने के लिए मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। वह तो प्रेम और स्नेह से आने वाली नवीन पीढियों के लिए पूरे उपवन में लगे सभी फल फूलों के वृक्षों का सिंचन करता है।
अतः प्रस्तुत पंक्तियाँ धर्म एवं अधर्म के आचरण का सटीक चिंतन करते हुए धर्म की भावना को पोषित-पल्लवित करती है। मानवीय जीवन में परहित से बढ़कर अन्य दूसरा धर्म नहीं है। निर्गुण पंथ के संत कबीरदास जी भी यही कहते हैं-
“वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखैं, नदी न संचै नीर।”
” परमार्थ के कारने, साधुन धरा शरीर।।”
अर्थात् – वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, सरिता अपना जल स्वयं नहीं पीती। सज्जन लोग तो परोपकार करने के लिए ही यह मानव शरीर धारण करते हैं।”
सीमा गर्ग ‘मंजरी’
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश।