महाकुंभ 2025 आस्था को सहेजने के लिए मुझे सौ और आंखें चाहिए
महाकुंभ 2025
आस्था को सहेजने के लिए मुझे सौ और आंखें चाहिए
मेरा बहुत समय से भारतीय ज्ञान परम्परा और महाकुंभ के बारे में लिखने का मन था। लेकिन बिना महाकुंभ गये लिखना, कोरी डूंडी पीटना होता। आखिर बीती 16-18 जनवरी को यह अवसर भी मिला।
कुंभ और महाकुंभ के बारे में, अपने आरम्भिक जीवन के बरसों में यानि बचपन के दिनों में, बुजुर्गों से गाँव में बहुत सुना था। गाँव में, कुंभ मेले से लौटकर आने वाले के चेहरे और शारीरिक हाव-भाव, एक नई ऊर्जा लिए होते थे। महाकुंभ में जाने वाले, महाकुंभ से लौटने वाले, कुंभ के बारे में बात करते समय बड़ी तल्लीनता से बताते थे। उनके कहे और अनकहे में, एक पूर्ण आनंद की लहर केंद्र में होती थी। उनके कहे में, आनंद बहता था। इस कहे के इर्द-गिर्द, अनकहे का महत्व और भी ज्यादा होता था। कुंभ के बारे में बतियाते समय, इस अनकहे में, उनके हाथों की हलचल, उनकी आँखें, उनके चेहरे के आवभाव, उनकी भौंहों में एक राग बरसता था।
आज का युग बड़ा अजीब है। इन दिनों महाकुंभ के विषय में बहुत कुछ ऊटपटांग भी लिखा जा रहा है।
लोगों में कर्म, ध्यान और धर्म की समझ ‘अध जल गगरी छलकत जाय’ वाली जैसी है। मनुष्य को ‘करना’ चाहिए, इस उद्देश्य से किया गया हर कर्म, धर्म है। ऐसा हर कर्म सम्पूर्ण ध्यान भी चाहता है। यानि कर्म का समापन पूरी निष्ठा से हो। पूरे मनोयोग से हो। इस क्रिया में अपने आपको झोंकने का नाम ही ‘ध्यान’ है। सूई में धागा पिरोने की नाईं।
धर्म या धार्मिक बात किसी भी धरातल पर कही जाए तो उसके विरोधी भी बहुत हैं। वे धर्म की अपनी परिभाषा लिए खड़े हैं। वे अपनी परिभाषा लिए हैं यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन इस परिभाषा को थोंपने का उनका प्रयास और वह प्रयास खिन्नता की पृष्ठभूमि में पिरोया हुआ होता है।
कोई कुछ करने की चुने या धर्म का रास्ता चुने तो लोग कहते हैं। गलत कर रहा है। बिन माँगी सलाह लिए तैयार खड़े रहते हैं। खुद धर्म पर चलने को राजी नहीं। जो कोई धर्म के रास्ते पर चलना चाहता है। उसको कहते हैं। तू गलत कर रहा है। गलत रास्ते जा रहा है।
राह चलने वालों से इतना ही कहूंगा कि चलते जाना। सुनना सबकी। लेकिन ये मत समझ लेना कि जो कहा जा रहा है। वह सब सही है। क्योंकि कहने वाला सब सच्ची न कहेगा। वह यह कभी न बतायेगा कि वह कहां गलत है।
यहाँ आदि शंकराचार्य को उद्धृत करना समीचीन जान पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य के समय भारतीय समाज बहुत से सम्प्रदायों में बंटा हुआ था। आदि शंकराचार्य के प्रयास से भारतीय आध्यात्म और संस्कृति को कुंभ मेले के रूप में संगठित किया गया। तत्समय भी सभी सम्प्रदाय ईश्वर की बात करते थे। सभी अलग अलग तरीके से करते थे। सामान्य जन के लिए यह बहुत भ्रमित करने वाला होता है। कुंभ के आयोजन के माध्यम से सभी सम्प्रदायों को एक साथ, एक मंच पर लाने का काम आदि शंकराचार्य ने बहुत समझ से किया। एक खुले आकाश तले सभी सम्प्रदायों को समेटे एक महा आयोजन हो। महकुंभ में एक ही स्थान और एक ही समय में, सभी देवताओं और सभी देवियों की बात हो रही है। जन सामान्य के मन की जिज्ञासा को एक मंच पर लाने का प्रयास अद्भुत है। उससे भी आगे बढ़कर, आम आदमी को यात्रा के प्रति आकर्षित करना। निर्वाण की राह का आमंत्रण यानि जीवन के कम्फर्ट जोन से बाहर निकालना। व्यक्ति को उसकी सुविधा कोठरी से बाहर निकाल, महाकुंभ व्यक्ति से अस्तित्व में गति का द्योतक है। परमात्मा आत्मगत शक्ति है। परमात्मा पदार्थगत शक्ति नहीं है। लेकिन इसे हम भिन्न भिन्न स्वरूप में खोज रहे हैं। उन सबका समागम है महाकुंभ।
महाकुंभ में जाने का मतलब है सब कुछ छोड़कर चल देना। यह आसान नहीं है। अपनी मांद छोड़कर चल देना। अहंकार की केंचुली को छोड़कर तीर्थ पर चल देना। लोग अपनी मांद में घुसे हैं। जो लोग अपनी मांद को छोड़कर, अपने खोल को छोड़कर, अपनी केंचुली को छोड़कर, कुछ खोज निकलने, किसी धार में मिलने को राजी है। उसे मांद में बैठे लोग, अपनी सुविधाओं के खोल में घुसे लोग, चलने वाले को कहते हैं तू गलती कर रहा है।
भई, आप सही रास्ता बताओ न ! हम तो उस पर भी चल देंगे। अपनी मांद से निकल लिए हैं तो कहीं भी चले जायेंगे। आप कोई दिशा तो बताओ। केवल गलत कर रहे हो कहना, कुछ करने को गलत ठहराना, निंदा करना है।
ये वे लोग हैं जो न तो स्वयं अपनी मांद छोड़ने को राजी हैं। यदि कोई दूसरा अपनी मांद छोड़ता है तो ये ठिठोली करने, चूंटका भरने और बोली से पत्थर मारने में भी नहीं हिचकते हैं। इन्हें इसमें ही आनंद आता है। ये इसे ही आनंद समझते हैं। मीरा बाई को जहर दिया गया होगा तो ऐसी प्रवृत्ति के लोगों ने बहुत तालियां बजाईं होंगी। क्योंकि जब गालियां देना सिर चढ़ा है तो भक्ति भाव के लिए स्थान कहां बचा? बात एक ही हो सकेगी। आपके जीवन में ऊर्जा का स्त्रोत एक ही है। भक्ति भाव में डूबे जाओ या किसी को भला बुरा कह लो। एक ही काम हो सकेगा। दूसरे को गाली देकर, ताली बजाकर अपना मनोरंजन कर लो या भक्ति भाव में डूबे नाचने लगो।
नाच! लोग नाचने को बहुत क्षुद्र समझते हैं। नाच नहीं सकते। अपनी मांद नहीं छोड़ सकते। नाचने वाले को देख ताली जरूर बजा देंगे। यदि नाचने वाली हो तो उसका आदर न कर पायेंगे। सीटी पे सीटी बजायेंगे। कला की जरा भी थाह होती तो नर्तक/नर्तकी के आगे हाथ जुड़ जाते। सिर झुक जाता। मनोरंजन की प्रवृत्ति ने बहुत कुछ बिगाड़ा है। उसने सजगता की यात्रा को विराम दे दिया।
नब्बे के दशक में मैंने कुछ बरस तक बाल नहीं कटवाये। बाल स्वाभाविक तौर पर बढ़ते रहे। एक दिन पड़ौस के गाँव के वृद्ध बोले “तुमने नाचने वाले जैसे बाल बढ़ा रखे हैं।”
मैंने कहा “इसमें मेरा दोष क्या है ? उम्र के साथ मेरा शरीर भी बढ़ रहा है।”
उस बाबा ने अपनी बात फिर दोहरा दी कि नाचने वाले जैसे बाल बढ़ा रखें हैं।
मैंने कहा बाबा आपने नर्तक को देखा है ? नाचने वाले को देखा है ?
बाबा ने तुरंत कहा “हाँ।”
नाचने वाले को देख, आपको आनंद आता है ?
बाबा ने फिर तुरंत कहा “हाँ।”
मैंने कहा बाबा जब आपको नाचने वाले को केवल देखकर आनंद आता है तो आप अंदाजा लगाओ कि नाचने वाला कितना आनंद से भरा होगा!
बाबा के चेहरे पर एक सफेदी दौड़ गई।
यह संसार मरघट से ज्यादा कुछ नहीं है। हम सब कतार में हैं। इस मरघट में नर्तक की तरह, मीरा की तरह, बुद्ध और महावीर की तरह कुछ ही लोग जीवन को आनंद से सराबोर कर पाते हैं।
जिस व्यक्ति ने विचार के तल पर ही जीवन को जीया हो, उससे कोई आशा भी नहीं करनी चाहिए। वह अनुभव के तल पर घटे को आपसे साझा कर न सकेगा। क्योंकि उसे वह अनुभव नहीं है। जीवन में किसी विचार विशेष से बंध जाना, कूए के मेंढ़क हो जाना है। विचार की अपनी सीमा है। विचार अपरिमित को न सहेज सकेगा। विचार के तल पर सब स्वीकार्य का भाव निहित नहीं होता है। वहांँ केवल तर्क का आधिपत्य होता है।
अज्ञात, अदृश्य को ध्येय बनाकर चल पड़ना। उसे जानने की राह, जिसे नहीं जाना जा सकता। जो अनंत है। अपरिमित है। यह जानने की प्यास, यह अभिप्सा ही धर्म की राह है। यह धार्मिकता है। एक अभिप्सा, एक नयी चेतना का जन्म है। इसी राह तुम अपने अंतर में छिपे हुए का पता पा लेते हो। उस सनातन का बोध हो जाता है। इस तरह जो न जाना जा सकता था वह अनुभव जन्य हो जाता है।
महाकुंभ सर्वस्य है। विचार के तल पर, महाकुंभ की महक का अनुभव न किया जा सकेगा। जीवन की इस महक को चेतना के तल की पैठ पर ‘स्थितप्रज्ञ’ ही अनुभव कर सकता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है जीवन चेतना के प्रति पूर्ण समर्पण। जो इस क्षण है सब स्वीकार्य है। आस्था पानी के स्वाद की नाईं अकथ्य है। पानी के स्वाद को शब्दों में बांधकर नहीं कहा जा सकता है।
कुंभ की कथा बहुत रोचक है। समुद्र मंथन की कथा उससे भी रोचक है।
जैसा कि आप जानते हैं। ‘कुंभ’ का अर्थ है कलश यानी घड़ा। कुंभ स्नान की कहानी एक अमृत के घड़े से जुड़ी है। इस पौराणिक कथा के अनुसार, दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए श्राप के कारण से देवता कमजोर हो गए थे। राक्षसों ने देवताओं को युद्ध में भी पराजित कर दिया था। इस पराजय के पश्चात देवता एकत्रित होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे सहयोग के लिए निवेदन किया। सहायता की सुनकर, भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन करने को कहा। जिसमें एक पक्ष देवताओं का और दूसरा पक्ष दैत्यों का था। देवताओं ने राक्षसों के साथ, समुद्र मंथन कर, अमृत की प्राप्ति की संधि रखी। जिसे अमृत के लालच में राक्षसों ने सहज स्वीकार कर लिया। यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है। इस बात को पुनः दोहरा रहा हूँ कि देवताओं ने राक्षसों के साथ, समुद्र मंथन कर, अमृत की प्राप्ति की संधि रखी। जिसे अमृत के लालच में राक्षसों ने सहज स्वीकार कर लिया। जीवन में लालच बहुत हैं। अमृत का लालच ही ऐसा है। सब दुष्प्रवृत्तियों वाला आदमी भी इस लालच में आ जाता है। वह सब दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने को राजी हो जाता है यानि दुष्प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति में भी रूपान्तरण की पूरी सम्भानाएँ हैं। अमृत निकला नहीं लेकिन निकलेगा। यानि भविष्य की बात है। जिसे पाकर अमर हो जाओगे। यह जीवन का सबसे सुंदर और अद्भुत कथानक है।
इस तरह समुद्र मंथन शुरू हुआ। यह मंथन सांकेतिक है। यह मंथन जीवन को समझने, समझाने की कथा है। यह कथा जीवन रूपी समुद्र का मंथन है।
इस कथा में, जीवन की सभी प्रवृत्तियां, जीवन के वैभव की प्रतीति के रूप में निकली। पर्वत की मथानी यानि जीवन में सुदृढ़ता की जरूरत है। अनुशासन की सुदृढ़ता ही जीवन को गढ़ती है। आप जब जब भी जीवन की किसी भी क्रिया को करेंगे तो उसके परिणाम भी निकलेंगे।
समुद्र मंथन की कथा में वासुकी नाग की नेती भी सांकेतिक है। नाग देह सा लचीलापन जीवन को सहजता में ढ़ालता है। यदि आप में जीवन में लचीले हैं तभी विवेक काम करेगा। तभी जीवन में चिंतन और मंथन हो सकेगा। यह सारी कथा, मानव मन को मथने से है। मानव जीवन समुद्र समान है। देह कुंभ समान है। यदि मानव देह को कुंभ मानें तो मन उस कुंभ का केंद्र है।
कहते हैं कि समुद्र मंथन की कथा में 14 रत्न निकले। ये सब रत्न जीवन के महत्वपूर्ण रहस्य हैं। ये निम्न प्रकार हैं :
1. कालकूट विष रत्न – समुद्र मंथन की कथा के अनुसार मंथन में सबसे पहले कालकूट विष रत्न निकला। जिसे शिव ने ग्रहण कर, धारण किया। विष निगलने की नहीं अपितु उसे जीवन में स्वीकार्य भाव के साथ स्थान देने की आवश्यकता है ताकि उसके प्रभाव को सीमित किया जा सके। ध्यान रहे कि जीवन में त्याग की बात झंझावात खड़ा कर देगी। त्याग जीवन में संघर्ष खड़ा कर देगा। अतः सब सहज स्वीकार्य हो। विष भी, जीवन में कड़वाहट भी स्वीकार्य हो।
2. कामधेनु रत्न – अस्तित्व से आपका ऐसा नाता। जब आप इच्छा करें और घट जाए।
3. उच्चैश्रवा घोड़ा रत्न – कथानुसार यह घोड़ा मन की गति से चलता था। राजा बलि ने इस रत्न को अपने पास रखा था। मन रूपी घोड़े को बलवान यानि कोई बली ही नियंत्रण में रख सकता है। मन को साधना जीवन की सफलता का परिचायक है।
4. ऐरावत हाथी रत्न – कथा कहती है कि इस रत्न को भगवान इंद्र ने इसे अपनाया। शक्ति को अपने विवेक से चलाना बहुत बड़ा गुण है।
5. कौस्तुभ मणि रत्न – कहते हैं कि इस रत्न को भगवान विष्णु ने हृदय पर धारण किया। हमारी अपनी ऊर्जा, अपनी चमक का हमें ज्ञान है ? या कहूँ कि हमारी ऊर्जा, हमारी सोच या विचारों की परत से दबी हुई है ? इस रत्न का हृदय स्थल पर धारण का अर्थ है प्रेम। हम विचारों की परतों के तले दबे रहेंगे तो प्रेम न घटेगा। प्रेम के लिए निश्छल जमीन की जरूरत है।
6. कल्पवृक्ष रत्न – कहते हैं इस रत्न को देवताओं ने स्वर्ग में लगाया। इस समुद्र मंथन कथा में इसे इच्छा पूर्ति करने वाला माना जाता है। यह बहुत गहन बात है कि चेतना के तल पर आप अस्तित्व से जुड़ जाओ। अस्तित्व से एकाकार का अर्थ है सब इच्छाएँ गौण हो जायेंगी। मन के तल पर इच्छाओं का सफाया हो जायेगा।
7. अप्सरा रंभा रत्न – यह रत्न देवताओं को मिला। हालांकि इस रत्न को कामवासना का पर्याय माना जाता है। काम वासना जीवन और अस्तित्व का जोड़ है। इस समझ को जीवन में समग्रता के साथ जीना सजगता का पायदान है
8. देवी लक्ष्मी रत्न- धन सम्पदा और वैभव का प्रतीक रत्न। इसे देवता, ऋषि और दानव सभी अपने पास रखने के इच्छुक थे। लेकिन लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु के पास रहना स्वीकार किया। इसका तात्पर्य है कि धन उन लोगों के पास जाता है, जो उसे सहेजना जानते हैं।
9. वारुणी देवी रत्न – वारुणी का अर्थ मदिरा होता है। इस रत्न को दानवों ने ग्रहण किया था। इसकी लत से जीवन में दुख संताप का आमंत्रण है।
10. चंद्रमा रत्न – इसे महादेव ने अपने मस्तक पर धारण किया था। इसका सार है कि जब हमारा मन सभी बुराइयों से मुक्त हो जाता है, तब हमें शांति महसूस होती है। एक चाँदनी सी शांत शीतलता मुख मंडल पर शोभायमान हो जाती है।। यह सहस्त्रार में प्रवाहित होती ऊर्जा का भी संकेत है।
11. पारिजात वृक्ष रत्न – कहते हैं इसे सभी देवताओं ने ग्रहण कियाथा। इस वृक्ष की ऊर्जा क सम्पर्क में थकान दूर हो जाती थी। जीवन में इसका आशय है कि जब जब भी आप प्रकृति के सम्पर्क में रहेंगे जीवन ऊर्जा से परिपूर्ण रहेगा। यहाँ शांति और थकान
12. पांचजन्य शंख रत्न – कहते हैं कि भगवान विष्णु ने इस रत्न को धारण किया। शंखनाद, शंख ध्वनि ऊर्जा का प्रतीक है। मानव देह में, ध्वनि ऊर्जा को मंत्रोच्चारण और उस उच्चारण से उपजी देह में ऊर्जा यात्रा को अनुभव कर समझा जा सकता है।
13 व 14. भगवान धन्वंतरि एवं अमृत कलश रत्न – स्वस्थ और अमृत यानि जीवन के शिखर का प्रतीक हैं। समुद्र मंथन की कथानुसार 13वें रत्न के रूप में, भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। उनके हाथ में 14वें रत्न के रूप में अमृत कलश था।
कहते हैं भगवान धन्वंतरि ने सभी देवताओं को अमृत का सेवन कराया। श्राप से मुक्ति दिलाई। आप स्वस्थ होंगे। आपको स्वस्थ जीवन का ज्ञान होगा तभी आप किसी को अमृत की बात कह सकेंगे। यह बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत है। मानव जीवन में परिस्थितियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। स्वस्थ जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। जीवन में स्वस्थ सोच भी बहुत महत्वपूर्ण है। स्वस्थ जीवन और स्वस्थ सोच अमृत पान तक की राह तय करती है।
समुद्र मंथन की कथा में, विष सबसे पहले और अमृत सबसे बाद निकला। विष की समझ पहले आयेगी तभी अमृत को पाने का प्रयास होगा। जीवन को समझें। जीवन में इन रत़्नों की बहुत अहम भूमिका है। जीवन समस्या सा दिखाई पड़ता है। जगत में वस्तुएँ है। जगत में सुंदरता है। जीवन में वासनाएँ हैं। जीवन समस्या ही होती तो समाधान हो जाता। समुद्र मंथन कथा कि जरूरत न पड़ती। जीवन न ही समस्या है। जीवन पहेली भी नहीं है। मानव जीवन अपने आपमें बहुत बड़ी जिज्ञासा है। यह बहुत गहन रहस्य और जिज्ञासा का विषय है। जीवन रहस्य है। जीवन जीने की बात है। जीवन जीने की राह है। जीवन का अपना स्वाद है। पानी के स्वाद की नाईं। जीवन की अपनी मस्ती है। जीवन की मस्ती के स्वाद को शब्दों में नहीं बताया जा सकता है।
जीवन एक अवसर है। समुद्र मंथन की कथा के विष से अमृत अनुभव की यात्रा है। इस जीवन यात्रा के बारे में कहना सुनना अर्थहीन है। जीवन में सजगता की राह पर चल पड़ना महत्वपूर्ण है। आप राह चल पड़ेंगे तो जीवन में रूपान्तरण भी घट सकता है।
अमृत सबसे अंतिम सीढ़ी यानि जीवन के शिखर की सजगता के सोपान का रहस्य है। इस रहस्य तक तभी पहुंचा जा सकता है जब आपने पहले किसी न किसी रूप में, पहली तेरह रत्न रूपी सीढ़ियाँ पार कर ली हों।
संसार में बहुत खजाना है। अस्तित्व में इस खजाने की बड़ी सुरक्षित व्यवस्था है। इस अस्तित्व के खजाने को चोर नहीं ले जा सकते। इसकी कभी चोरी नहीं हो सकती है। रहेगा सब धरती पर ही। आप एक दाना या एक पिन भी अपने साथ में नहीं ले जा सकते। जीवन में सब कुछ पाया जा सकता है। अमृत भी पाया जा सकता है। समुद्र मंथन की कथा यही कहती है।
मन के पार, धन के पार, धनिकता के उस पार भी एक जगत है। शांति का जगत, आनंद का जगत, परमानंद का धरातल। जिसे धन से नहीं पाया जा सकता है। यह धनिक भली-भांति जानते हैं। धन सब खरीद सकता है। धन, आनंद नहीं खरीद सकता। धन, सुख की नींद नहीं खरीद सकता। धन, शांति नहीं खरीद सकता। धन, मौन नहीं खरीद सकता। धन, भक्ति की मस्ती नहीं खरीद सकता। समृद्ध प्राचीन भारत ने ज्ञान परम्परा की ऊंचाइयों को छूआ था। अब फिर समय से समय आ गया है।
ऊपर सब लिखने का आशय है कि हम दूसरों के शब्दों पर ध्यान न देकर, अपनी स्वयं की ऊर्जा को जानें। इस संसार को आप जीवन भर प्रयास करें तब भी नहीं जान सकते। इस संसार को जानने के लिए पहले आपको स्वयं को जानना जरूरी है। परमात्मा जीवन है। वह भीतर ही मिलेगा। गंगा जमुना की धार सा बहता। अतः इस जीवन में स्वयं को जान लेना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। समूह में अपनी ऊर्जा से जुड़ना, विचारों के पार जाना, सहज हो जाता है। इस दृष्टि से महाकुंभ की ज्योति से ज्योति से मिलाना एक अवसर है।
प्रत्येक ग्रह की अपनी ऊर्जा है। आपने सुना और देखा होगा कि पूर्णिमा का चांँद उगता है तो समुद्र को मथने लगता है। ज्वार आ जाता है। नारी देह को चांद की कलाओं के साथ जीना समझना पड़ता है। पूर्णिमा के आसपास जन्म-दर भी अधिक होती है। धरती पर ऊर्जा का आप अंदाजा नहीं लगा सकते। महाकुंभ का यह 144 बरस में, अद्भुत खगोलीय संयोग घट रहा है। व्यक्ति, धरती , ग्रह और अस्तित्व की ऊर्जा एक धार में बह रही है। इस महाकुंभ के समय बुध, मंगल, अरुण, बृहस्पति, वरुण, शुक्र और शनि ये सात ग्रह, एक पंक्ति में, परेड कर रहे हैं। यह संयोग ही है कि भारत का समय भी प्रयागराज क्षेत्र ही से लिया गया है।
महाकुंभ की परेड में शामिल होने पर ही इस परेड, गंगा में डुबकी और उस ऊर्जा का अनुभव हो सकेगा।
वर्तमान काल में द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मन पर काबिज हैं। इन प्रवृत्तियों ने मनुष्य को अपराध भाव से ग्रषित कर, अपंग बना दिया है। मनुष्य की परतंत्रता का कारण यही है। यहाँ तक कि प्रेम निंदित है। सम्भोग को लोग गाली देते हैं। ऊर्जा एक ही है। सम्भोग कर लो, प्रेम कर लो या गाली गलोच कर लो। एक क्षण में एक ही कर पाओगे। गाली दोगे तो सम्भोग या प्रेम न कर पाओगे। इस बात की गारण्टी है। क्योंकि अस्तित्व तुम्हें एक क्षण में, एक ही अवसर देता है। अतः कर्म में पूरा उतर जाओ ताकि कर्म चक्कर बने ही नहीं। कर्म चक्कर का अर्थ है अधूरापन यहाँ, अधूरापन वहाँ।
समुद्र मंथन की कथा से पता चलता है कि दुनिया में सब घटता है। पाप भी और पुण्य भी। आप किस किनारे होना चाहते हैं। जुड़ना चाहते हैं। यह व्यक्तिगत तौर पर स्वंय पर निर्भर करता है। समझदारी इसी में है कि जो घट रहा है उसे देखो। उसकी निंदा ना करो। क्योंकि निंदा करने की प्रवृत्ति बहुत ही मूर्खतापूर्ण है। इतनी मूढ़तापूर्ण है कि यदि कोई सृजनात्मक काम हो रहा होगा तो उसे भी नकारात्मक कहने में, पूरी ऊर्जा लग जायेगी। ऊर्जा एक ही है। ऊर्जा स्त्रोत की दृष्टि से निंदा निरीह मूर्खता है। निंदा जीवन के विकास की पूरी संभावनाओं को रोक देती है। अतः जितना हो सके निंदा से बचो। आपने कीचड़ को देखा होगा। लोग कीचड़ की बहुत निंदा करते हैं। कीचड़ से बचते हैं। लेकिन धान कीचड़ में ही लगता है। कमल भी कीचड़ में ही खिलता है। व्यक्ति परमात्मा की राह में सृजनशील व्यक्ति, कमल को कीचड़ में, जन्म लेने में, सहायता करता है। ताकि कमल की मुक्ति का मार्ग खुल सके। कीचड़ में खिल कमल कीचड़ से मुक्त हो सके।
काम चाहे जितना साधारण हो। काम को ऐसे करो कि गहराई झलके। आप तन्मय हो जाओ। महाकुंभ में डुबकी तन्मयता की प्रतीति है। ठण्ड है। लेकिन, देह को यानि स्वंय को डूबने से बचाना नहीं है। मैं शरीर हूँ। यह संसार का माया का बोध है। शरीर एक कपड़ा है। शरीर वासनाओं का वस्त्र है। यह बोध अपने आपमें मोक्ष है कि मैं शरीर नहीं हूँ।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे भवन्तु निरामया।
महाकुंभ हमारी आध्यात्मिक धरोहर है। इसी कारण भारत विश्व की आध्यात्मिक राजधानी कहलाने की हकदार है।
जीवन का एक दूसरा छोर है मरना और मारना। मरने मारने की प्रवृत्ति कभी भी परमात्मा को प्यारी हो सकती है ? उसने तो जीवन रचा है। जीवन उसकी संरचना है। प्रेम इस संचरना रूपी जीवन का मूल है। इस मूल की अंतर आत्मा ही परमात्मा है।
जब आप गंगा के पानी में खड़े होकर, सूर्य की ऊर्जा को जल चढ़ाते हैं। आपकी देह, धरती पर, जल में खड़ी है। आप पूर्ण समर्पण के साथ सूरज की ऊर्जा को जल चढ़ाते हैं। अर्घ्य देते हैं। आपकी देह श्वास ले रही है। आकाश ने आपकी देह के आकार को स्थान दिया हुआ है। यानि अर्घ्य के समय, देह की इस क्रिया को वायु और आकाश का सान्निध्य भी प्राप्त है। इस भाँति पंचभूत से बनी आपकी देह अपने स्त्रोत से जुड़ एकाकार हो जाती है। सूई में धागा पिरोने की नाईं, सूई में धागा पिरोते समय, हमारी पूरी ऊर्जा सूई में धागा पिरोन की क्रिया में, एक हो जाती है। अस्तित्व के प्रति समर्पण घट जाता है। इन अर्थों में जीवन में अद्वैत घट जाता है। आइए, अपने होने को मनाएं। हम अपने जीवन को मनाएं। अस्तित्व की बाँहों के स्नेह महाकुंभ में डुबकी लगाएं।
मैं सपत्नीक, महाकुंभ में तीन दिन के प्रवास के बाद, वापस लौटकर आया हूं।
हमने 16 जनवरी की देर शाम तक महाकुंभ स्थल का कार से भ्रमण किया। इस भ्रमण में, कुंजपुर होटल के ड्राइवर आनंद जी के शांत स्वभाव की जितनी तारीफ की जाए कम है। जब जब भी हम भटक रहे थे तो वे शांत स्वभाव से कार चलाते रहे। बहुत ढ़ूढ़ने के बाद, हम बहुत थक चुके थे। इसी समय मैंने एक पुलिस के सिपाही से बात की। मैने उससे अतुल कोठारी जी की के शिक्षा एवं संस्कृति न्यास के बनाए पंडाल ‘ज्ञान महाकुंभ’ के बारे में पूछा। पहले तो उसने कहा कि मुझे पता नहीं है। यह उत्तर सुनकर, हताशा में, मैंने कार की खिड़की को बंद कर लिया। हम महाकुंभ मेले से वापसी के बारे में बात करने लगे। चार कदम लेने के बाद वह सिपाही वापस आया और कार के शीशे पर खटखट की। ऐसा करके उसने इशारा किया और कहा कि ज्ञान महाकुंभ कुछ दूरी पर बाईं ओर बगल में ही है।
यह सूचना पाकर, आखिर हम ज्ञान महाकुंभ के पंडाल पर पहुँच गये। वहाँ पूर्णेन्दु मिश्र जी से मुलाकात हुई। उनसे मिलने पर, उन्होंने सबसे पहले कहा कि आप भोजन करें फिर बात करेंगे। हमने उस ठण्ड में लोई ओढ़े हुए, गंगा के प्रांगण में, तारों भरी शाम को हाथ में थाली लिए भोजन के एक एक ग्रास का आनंद लिया।
पूर्णेन्दु जी से बातचीत करने पर पता चला कि वे नवम्बर 2024 से ही महाकुंभ की व्यस्थाओं को देख रहे हैं। यह सुनकर मैंने उनसे अगले दिन, महाकुंभ मेले का मार्गदर्शन करने के लिए कहा। यह सुनकर वे बोले कि कल आप ग्यारह बारह बजे आ जाओ।
अगले दिन हम उसी ड्राइवर को साथ लेकर चले गये। पूर्णेन्दु जी पंडाल में होने वाले आयोजन में बहुत व्यस्त थ। इस व्यस्तता को निपटाकर वे हमें महकुंभ के सैक्टर 18, 19 व बीस की तरफ ले गये। वे सभी रास्तों से भलीभाँति परिचित थे। इस कारण ड्राइवर को बहुत आसानी हो गई। अचानक पूर्णेन्दु जी ने कार रोकने के लिए कहा। कार रुकते ही बोले आओ आपको गुरू जी से मिलवाता हूँ। तान्त्रिक गुरू हैं। चंदन का तिलक लगाए, क्लीन शेव, मोतियों व रुद्राक्ष की माला पहने हुए, बयासी वर्षीय बाबा कुर्सी पर बैठे धूप सेंक रहे थे। हमें लोहे की टिन के दरवाजे से आते हुए देखकर, कुछ सम्भले और देखते ही देखते एक संवाद शुरू हो गया। उन्होंने कुर्सियाँ मँगवाई तब तक भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति की बात आरम्भ हो चुकी थी। इसी बीच उन्होंने एक टेन्ट की कुटिया की ओर इशारा करते हुए बताया कि मेरे गुरू जी कुटिया में हैं। मैंने सोचा कि शायद गुरू जी आराम कर रहे हैं।
जब हम चलने लगे तो उन्होंने अपना फोन नम्बर देते हुए अपना नाम बताया। साथ ही उन्होंने कुटिया की ओर इशारा करते हुए कहा कि आओ गुरू जी से भी मिलते जाओ।
हम अपने जूते उतार कर, कुटिया में पहुंचे तो कुटिया सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर थी। कुटिया का भीतरी भाग ऊर्जा संचरित क्षेत्र में डूबा था। इस ऊर्जा का संसर्ग और अनुभव पाकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। मेरी पत्नी ने भी यही कहा। कुटिया में घुसते ही मेरी देह का रोम रोम उस ऊर्जा में नहा लिया। ऐसा अद्भुत अनुभव ! वहाँ कुटिया में उनके गुरू जी की केवल फोटो लगी हुई थी। फोटो के साथ में शायद गुरू जी का एक दाँत भी रखा हुआ था।
इस अनुभव के बाद पूर्णेन्दु जी हमें एक बहुत बड़े पंडाल में लेकर गए। उस पंडाल में लोग कतार में लगकर प्रसाद ग्रहण कर सकें। इसके लिए समुचित व्यवस्था थी। पूर्णेन्दु जी ने कहा कि आप भी प्रसाद वितरण करो। एक बहुत बड़ी मेज पर, पत्तों के दोनों में प्रसाद रखा हुआ था। प्रसाद की खाली होती मेज को कुछ ही क्षणों में फिर से भर दिया जाता था। कुछ देर तक हमने प्रसाद वितरण की अनुभूति को आत्मसात किया।
उसके बाद भीतर टैन्ट में उन उद्योगपति जी से भी मिले जिन्होंने तीन माह तक प्रसाद बाँटने की व्यापक और बहुत साफ सुथरी व्यवस्था की थी।
थोड़ी देर बाद, पूर्णेन्दु जी के आग्रह पर शुक्ला जी (सिक्योरिटी) हमारे साथ हो लिए। उन्होंने सभी मुख्य अखाड़ों का भ्रमण करवाया। हमारे चहुंओर का संसार, कौतूहल से भरा था। जिज्ञासा लिए मेरी आँखें चौंधिया रही थी। हमने जूना अखाड़े का भ्रमण किया। कुछ नागा साधुओं से संवाद का अवसर मिला। हर नागा साधु अपने जीवन कृत्य के सर्वस्व में डूबा था।
पूर्णेन्दु मिश्र जी ने बताया कि महाकुंभ में भारतीय सांस्कृतिक उद्देश्य से जितने भी पंडाल लगे हुए हैं। पंडाल लगाने का स्थान, भारतीय से सरकार द्वारा नि:शुल्क उपलब्ध कराया गया है। महाकुंभ क्षेत्र, एक पूरे जिले की शासन व्यवस्था है। यहाँ शराब का नामोनिशान नहीं है। यहाँ भोजन के लिए कोई पशु वध नहीं है। कोई रक्तपात नहीं है। कोई हिंसा नहीं है। राजनीति नहीं, कोई धर्मांतरण नहीं, कोई संप्रदाय नहीं, कोई अलगाव नहीं, कोई व्यापार नहीं, कोई व्यवसाय नहीं। संसार में कहीं भी इतनी संख्या में एक ही कार्यक्रम – धार्मिक, खेल, युद्ध या किसी अन्य उत्सव के लिए मनुष्य एकत्रित नहीं होते हैं।
महाकुंभ में हर जगह पर प्रसाद वितरण हो रहा है। महाकुंभ में सब शांत घट रहा है। हाँ, लाउडस्पीकरों से पण्डालों में भजन, कीर्तन और संतों के व्याख्यान अवश्य सुनाई पड़ते हैं।
वहाँ कोई हिंसा या रक्तपात नहीं है। पुलिस कर्मी अवश्य भरपूर मात्रा में दिखाई पड़ते हैं। उनसे मदद के लिए निवेदन करो तो वे आपकी मदद करने और आसपास जाना है तो साथ चलकर बताने को राजी रहते हैं। राजनीति बातें सुनाई नहीं पड़ती हैं। प्रसाद वितरण के समय लोग सहज कतार में लगकर, प्रसाद रूप में भोजन ग्रहण करते हैं।
एक पाकिस्तानी पत्रकार उमर खालिद महाकुंभ के बारे में लिखते हैं “इस ग्रह पृथ्वी पर, मानवता का यह सबसे बड़ा जमावड़ा, हिंदुओं का सबसे बड़ा, धार्मिक जमावड़ा है
वनस्पति (हमारे पैरों के नीचे) से लेकर तारों (आकाश में) तक ब्रह्मांड के साथ मानवता के संबंध के बारे में, हिंदू धर्म की यह समझ, हिंदू धर्म में उन्नत ज्ञान का प्रमाण है। जिसमें अलौकिक जड़ें और संबंध हैं। ध्यान करने वाले साधुओं की चेतना अंतरिक्ष और समय से परे सीमाओं तक पहुंचने में सक्षम है। यह मेरे और ब्रह्मांड के द्वंद्व के भ्रम को तोड़ता है।”
खालिद उमर लिखते हैं कि मेरा विस्मय इस घटना के भौतिकवाद, सांख्यिकी या भौतिक पहलुओं के बारे में नहीं है। यह इस बारे में नहीं है कि हमारी आंखें क्या देख सकती हैं। यह आकार या संख्या के बारे में नहीं है। जो चीज़ मुझे आश्चर्यचकित करती है वह है (जिसे हम प्राचीन कहते हैं) ब्रह्मांड के साथ मानवता के संबंध का ज्ञान।”
वे आगे लिखते हैं “यह आश्चर्य की बात है जब हिमालय के साधु और क्वांटम यांत्रिकी ज्ञान के विशाल महासागर में, एक साथ पवित्र डुबकी लगाते हैं। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि हिंदू धर्म, प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कोई द्वैत नहीं है। यह प्रकृति ही है। हिंदू होना, अपनी स्वाभाविक स्थिति में, वापस आना है।”
महाकुंभ जाएं तो सुझाव तौर पर इतना ही कहूँगा कि आप जल्दबाजी में न जायें। भीड़ वाले दिन न जाएँ। भीड़ वाली जगह पर स्नान करने से बचें।
इस भाँति अनुभव के तल पर, महाकुंभ अद्भुत घटना है। यह अनुभव ही सनातन की धुरी है। गंगा के प्रांगण में पूर्ण आनंद बंट रहा है। व्यक्ति एक बार उस स्थान के अनुभव से गुजरे। एक बार महाकुंभ जाना आपको पुनः पुनः वापसी का आमंत्रण देगा।
महाकुंभ जीवन अनुभव रस है। यह रस अपने आपमें अमृत है। जो सदैव ‘होना’ है। यहांँ न मरना है न मारना है। इस ‘होने’ में सृष्टि का ऐसा अद्भुत अनुभव है जिसे सत् चित् आनंद कहा गया है। इस ‘होने’ में डुबकी, अस्तित्व में गति है।
गंगा के प्रांगण में, महाकुंभ में, श्रद्धा, समर्पण और आस्था को देख मेरी पत्नी (डच) ने कहा “महाकुंभ की आस्था को सहेजने के लिए मुझे सौ आंखें और चाहिए।”
रामा तक्षक
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