आओ सम्हालें नवपीढ़ियों को
आओ सम्हालें नवपीढ़ियों को
मित्रों आशा है आपका जीवन खुशियों से भरा होगा । हम आज अपने परिवार पड़ोस व समाज के बदलते नक्शे कदम को देखकर यह ही कह सकते हैं कि शायद ही कोई हो जो वर्तमान में यह कहे कि मैं पूर्णतः खुश हूं ।
आखिर ऐसा क्यों ?
क्या हमने अपने नौनिहालों को भौतिक सुविधाएं प्रदान नहीं किया ?
क्या हमारे भीतर संस्कार नहीं ? क्या हमें विरासत में संस्कार नहीं मिला या फिर हम अपने भावी पीढ़ी (बच्चों) को वह शिक्षा दे पाने से चूक गए जिससे वे सुव्यवस्थित जीवन जीने की कला समझ सके ।
आपका उत्तर रहेगा ,ऐसी कोई बात नहीं । मैं समझता हूं कि बात कुछ ऐसा ही है ,तो फिर नवयुवाओं की दिशा धारा पाश्चात्य के तरफ क्यों ?
मेरे समझ से शायद यह इसलिए क्योंकि हमने उन्हें सिर्फ सिखाया है तथा जो कुछ भी सिखाने का प्रयास किया उस पर या तो हम स्वयं अमल नहीं कर पाए या फिर उन श्रेष्ठ बातों को हम अपने जीवन का अभिन्न अंग नहीं बना पाए,जिन अच्छे गुण कर्मों का हम उनसे अपेक्षा करते हैं।
हम यह भूल गए कि आज का मनुष्य (बच्चे) हमारा कहना कम मानते हैं किंतु जो करते हैं उसे देखकर उनका अनुकरण जरूर कर लेते हैं ।
अब प्रश्न उठता है कि कुछ अच्छे संस्कारवानों के बच्चे भी तो दुर्व्यसन व दुष्कर्म आदि में लिप्त पाए जाते हैं । उनमें जिद्दीपन फैशन ईर्ष्या- भाव आदि सामान्यतः ही दिखाई देते हैं ?
तो अपने अनुभव के आधार पर मैं यही कहना चाहूंगा कि हमने सिर्फ अपने ही बच्चों को संस्कारवान बनाने पर ध्यान दिया, हमारे आसपास व रिश्तेदारों के अन्य बच्चों तथा युवाओं के तरफ नहीं ।
हम यह भूल जाते हैं कि यह हमारा आज का नन्हा बच्चा कल बड़ा होकर पड़ोस व समाज की अन्य बच्चों के साथ बैठेंगे ,घूमेंगे व पढ़ेंगे ।उनमें उनके अपने परिवार से मिला हुआ संस्कार या कुसंस्कार हमारे बच्चों को भी प्रभावित करेंगे ।
अतः हम अपने दायित्व को समझें साथ ही स्वयं सत्कर्मों की राह पर चलते हुए वर्तमान नवपीढ़ियों को एक अच्छी दिशा दें ।
कवि एवं साहित्यकार,
बसंत कुमार “ऋतुराज”
अभनपुर