लघु कथा: जीवन का बनवास
लघु कथा: जीवन का बनवास
अस्सी वर्ष पूर्ण कर चुके एक बड़े पद से सेवानिवृत केसरी नाथ सुबह प्राणायाम और योग करके उठे ही थे, तभी वृद्धाश्रम के एक वार्डन ने आकर कहा- “बाबूजी! आपसे मिलने बनारस से कोई आया है।”
कौन है?
नाम नही पूछा तुमने- जी वह अपना नाम दीनानाथ बता रहे है।”
अरे! केसरी नाथ के चेहरे पर मंद सी मुस्कान आ गई। उन्होंने बॉर्डन से कहा- “उन्हें अंदर ले आओ।” केसरी नाथ और दीनानाथ बहुत पुराने और गहरे मित्र हुआ करते थे। एक ही विभाग और एक ही जगह दोनों की पोस्टिंग होने के कारण दोनों ही मित्रों में पारिवारिक रिश्ते प्रगाढ़ हो गए थे। दीनानाथ ने अपने दोनों बच्चों कुणाल और अनन्या को खूब शिक्षा और संस्कार दिये। जिससे दोनों बच्चे अच्छी तरह सेटल हो गए। दीनानाथ रिटायरमेंट के बाद अपने बेटे के साथ दिल्ली में रहने लगे थे। वहीं दूसरी ओर केसरीनाथ ने इकलौते पुत्र इशांक की पढ़ाई पर पैसा तो खूब खर्च किया, पर व्यस्तता के चलते समय और संस्कार नही दे पाये थे। विदेश में पढ़ाई के लिए भेजा। विदेश में ही जॉब लग गई और फिर उसने वहीं पर शादी भी कर ली। सेवानिवृति के वाद केसरीनाथ बनारस मे पत्नी के साथ आलीशान बंगले मे रहने लगे थे। जब भी बेटे से बात होती तो काम मे व्यस्त होने की बात कह फोन रख देता। धीरे धीरे 5 साल बीत गए। एक दिन वह अचानक ही घर आया तो मां-बाप की खुशी का ठिकाना न रहा। बेटे ने मां बाप को बहला फुसला कर करोड़ों की संपत्ति धोखे से बेच दी। और यह कह कर कि अकेले यहां क्या करोगे? आप लोग मेरे साथ रहेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। केसरी नाथ के मना करने पर माँ बेटे ने दबाव डालकर उन्हें साथ चलने के लिए राजी कर लिया था। सारी संपत्ति बेचकर बेटे ने मां बाप के जरूरी कागजात और वीजा पासपोर्ट की औपचारिकता पूरी कर अगले ही दिन वापस जाने की तैयारी कर ली। दोनों प्राणी इस बात पर बहुत खुश थे कि बुढापे मे अपने बहू बेटे के साथ सुखमय जीवन बितायेगे।अगले दिन सुबह दस बजे की फ़्लाईट पकड़नी थी, सो जल्दी उठकर सभी पड़ोसियों हितैसियों से इस बाबत मिलकर आये कि अगली मुलाक़ात कब हो। एयरपोर्ट पर पहुँचकर बेटे ने बताया कि फ़्लाईट दो घंटे विलंब से है।इशांक अपने माँ और पिताजी को वेटिंग हाल मे बिठाकर कुछ काम निपटा कर आता हूँ,कहकर निकल गया था। उन्हे वहाँ बैठे तीन घंटे से भी ज्यादा हो गए तो केसारीनाथ ने एक अधिकारी से पूछा तो उनके होश उड़ गए जब उसने बताया कि अमेरिका जाने वाली फ़्लाईट निर्धारित समय से ही जा चुकी है। घंटों बैठे रहने के बाद भी जब इशांक वापस नही आया तो उन्हे पता चल चुका था कि इशांक ने उनके साथ बहुत बड़ा धोख़ा किया।वह उन्हें छोड़कर बिल्कुल बर्वाद करके चला गया है। माँ के पैरों से ही जमीन खिसक गई। इसी सदमे में केसरीनाथ की पत्नी को हार्ट अट्टेक पड़ा और वह भी छोड़ कर चल बसी। केसरीनाथ ने किसी तरह अपने आप को संभाला। घर तो रहा नहीं तो वृद्ध आश्रम की शरण ली और वहीं सेवा करने लगे। उन्होंने जीवन का बाकी समय वृद्धाश्रम के कार्यों में लगा दिया। सात्विक प्रवृत्ति के होने के कारण जल्दी ही सभी के प्रिय हो गए। उन्हें जीवन का शाश्वत ज्ञान हो चुका था। शायद उन्हें अपने कर्मों की सजा मिली थी। ख्यालों मे खोये केसरीनाथ के कंधे पर पीछे से किसी ने हाथ रखा, तो उनकी तंद्रा टूटी। अरे! दीनानाथ तुम।दीनानाथ ने कहा- केसरी! जब मुझे तुम्हारे बारे मे पता चला तो बहुत दुःख हुआ,मुझसे रहा नही गया। मैं तुम्हें लेने आया हूं। माफ करना मित्र तुम्हारे साथ इतना कुछ गुजर गया लेकिन तुमने बताया तक नहीं। चलो घर चलते हैं। केसरीनाथ- मित्र! अब मुझे यहां अच्छा लगने लगा है और जीवन से भी वैराग हो गया है। अब मुझे बेटे से भी कोई गिले शिकवा नहीं है। मेरी प्रिय जीवन संगिनी भी छोड़ कर चली गयी है। अब बाकी जीवन का बनवास यही वृद्धाश्रम में पूर्ण होगा। अब केसरी नाथ की आंखों में किसी के प्रति मोह नहीं रह गया था। दीनानाथ को केसरी के स्वभाव और व्यवहार में परिवर्तन साफ नजर आ रहा था।
भगवानदास शर्मा ‘प्रशांत’
शिक्षक सह साहित्यकार
इटावा उत्तर प्रदेश