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श्रीमद्भगवद्गीता में त्रिगुणात्मक और त्रिगुणातीत होने की सार्वभौमिक शिक्षा….

 

गीतोपदेश को सांप्रदायिक सीमाओं में बांधकर सही तरह से नहीं समझा जा सकता है! अब इस ग्रंथ की जितनी भी व्याख्याएँ हुई हैं, उनमें से अधिकांश सांप्रदायिक या मजहबी या वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर लिखी गई हैं! अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी,द्वैतवादी, त्रैतवादी, अहिंसावादी,अध्यात्मवादी, मानसिक वृत्तियों की संघर्षवादी, प्रतीकवादी,योगसाधनावादी, ज्ञानवादी, संन्यासवादी आदि व्याख्याएं सांप्रदायिक या वैचारिक या व्यक्तिगत पूर्वाग्रह से लिखी गई हैं! जिसका जो मन चाहा, गीता के श्लोकों को तोडमरोडकर कुछ भी अर्थ निकालकर उसी का गीता का मुख्य उपदेश प्रचारित प्रसारित करने लगता है! शंकराचार्य से लेकर रामानुज, वल्लभ, योगानन्द, तिलक, गांधी, अरविंद, विनोबा, राधाकृष्णन,अडगडानंद, ओशो, ब्रह्माकुमारीज, आर्यसमाज, गीताप्रेस, इस्कॉन आदि की गीता की व्याख्याएं इसी शैली पर लिखी व छपी हुई हैं! आजकल तो जेल की शलाखों में बंद अपराधी रामपालदास भी श्रीमद्भगवद्गीता को काल द्वारा रची गई प्रचारित करने का पागलपन कर रहा है!लोकतंत्र के अपने खतरे भी हैं तथा अपने लाभ भी हैं! वैचारिक आजादी कई बार वितंडावाद का कारण भी बन जाती है! वामपंथी, मूलनिवासी, सैक्यूलर आदि लेखकों ने इसका मनमाना लाभ उठाया है!
श्रीमद्भगवद्गीता में महर्षि वेदव्यास ने भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविंद से त्रिगुण संसार का भोग करते हुए त्रिगुणातीत की अनुभूति करने को कहा है! वे कहते हैं कि हे अर्जुन आजकल वेद के नाम से जो कर्मकाण्ड आदि प्रचलित है, वह सब त्रिगुणात्मक है!लेकिन तुम्हें अपना सांसारिक जीवन इस तरह से जीना है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति का भोग भी हो जाए तथा इससे पार जाकर त्रिगुणातीत अस्तित्व की अनुभूति भी हो जाए!सत्व,रज व तम के द्वंद्वों से पार जाने से पूर्व तुम्हें सत्व की मात्रा में वृद्धि करना होगा! इन तीनों में संतुलन साधकर ही तुम सत्वस्थ, आत्मवान व द्वंद्वातीत हो सकते हो! मूल वेद इसी की तरफ संकेत करते हैं!इसी माध्यम से तुम परमात्मा की अनुभूति कर सकते हो! त्रिगुणात्मक प्रकृति से लडकर नहीं अपितु इससे सामंजस्य साधकर ही तुम इससे पार जा सकते हो! महाभारत के काल में वेदों के नाम से बहुत प्रकार का अनुचित कर्मकाण्ड प्रचलित हो गया था!महर्षि वेदव्यास ने उस अनुचित कर्मकाण्ड से सावधान रहने को कहा है! यहाँ पर मूल वेद का विरोध नहीं है अपितु वेदों के नाम से स्वार्थी लोगों ने जो प्रचलित कर दिया था, उसका विरोध है!महर्षि वेदव्यास के अनुसार अर्जुन को महाभारत का युद्ध इस तरह से लडना है कि सांसारिक उससे धर्म भी सध जाए तथा आत्मानुभूति होकर परमात्मानुभूति भी हो जाए! धर्म, नीति, न्याय आदि के रक्षार्थ युद्ध से भागना नहीं है अपितु ‘योगस्थ कुरु कर्माणि’ तथा ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ के सनातन ढंग से अपने सांसारिक धर्म को पूरा करना है! श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश धर्म, अध्यात्म, साधना, समाज व नैतिकता की सीमा में रहते हुए अधर्म, अन्याय,अव्यवस्था के विरोध में युद्ध करना है!जो एकतरफा दुष्टात्मा उच्छृंखल भोगवादी उपयोगितावादी लोग अन्याय, छल, बल, धूर्तता आदि के सहारे राष्ट्र पर कब्जा करना चाहते हैं उनको हर हालत में दंडित करना है!
महाभारत का युद्ध आजकल के युद्धों की तरह स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं अपितु जड -चेतन जगत् के हितार्थ लडा गया था!सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र व इतिहास को तोडमरोडकर कागज काले करने वाले पाश्चात्य विचारकों ने जो कुछ भी पिछले 250 वर्षों के दौरान लेखन किया है, वह अधिकांशतः झूठों का पुलिंदा मात्र है!
लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर उतरकर जब हम संसार पर नजर रखते हैं तो पाते हैं कि आप सामान्यतः किसी लडके या लडकी के लिए कितना भी प्रेम या दोस्ती या सहयोग कर लो, एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा कि वो आपको गलत सिद्ध करते हुए छोडकर चले जाएंगे! और यही आपके स्वयं के बारे में भी सच है कि जो लडका या लडकी आपसे प्रेम करते हैं, एक दिन ऐसा अवश्य आता है कि आपको उनमें दुनिया जहाँ की कमियाँ दिखलाई पड़ना शुरू हो जाती हैं और आप भी उनको गलत सिद्ध करके उनका त्याग कर देते हैं!इस दुनिया की यही हकीकत है और जो इस प्रकार के व्यवहार में पारंगत हैं, यहाँ पर केवल वही सफल माना जाते हैं! एकतरफा माया -मोह- स्वार्थ में फंसे हुए लोगों को वास्तविक,स्थायी व तृप्तिदायक महासुख या आनंद से क्या लेना- देना है?
त्रिगुणात्मक संसार में रहते हुए क्षणिक सुख का जुगाड़ होता रहे यही बहुत है!क्योंकि मानव के लिए क्षण तो अनगिनत होते हैं और एक सुख या प्रेमी या प्रेमिका या दोस्त या सहयोगी के छोडकर चले जाने से दूसरे मिल जाएंगे!क्षणिक या अस्थायी सुख मिलने का यही सिलसिला चलता रहेगा; तो फिर किसी शाश्वत, स्थायी व परमानन्द को पाने के लिए धोखाधड़ी या कपट-झपट से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुखादि का त्याग क्यों करना? एकतरफा भौतिकवादी या देहवादी या संसारी या चार्वाकवादी या सैमेटिक या अब्राहमिक या इपिकुरियनवादी या सुकरात -प्लेटो -अरस्तूवादी या अस्तित्ववादी या समकालीन फैमीनिष्ट या अंध- तत्वमीमांसा विरोधी या फ्रायडवादी या एकजन्मवादी या उन्मुक्त- भोगवादी व्यक्ति के लिए यही तो जीवन की सफलता का पैमाना है!
हमारे आज के मजहबी विश्वास व पूजापाठ,हमारी आज की शिक्षा व राजनीति, हमारे आज के अध्यात्म व योग, विज्ञान व व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में यही परिपाटी बन गयी है! ‘यूज एंड थ्रो तथा डिवाईड एंड रूल’ ही हम सबका जीवन दर्शनशास्त्र बन गया है! इसके अलावा मंचों से बडी- बडी आदर्शवादी बातों के प्रवचन झाडना तो मात्र दूसरों को बेवकूफ बनाने के लिए होता है, हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं होता है! राजनीति में ही देख लो; वहाँ पर जो चालाक व समझदार होते हैं वो नेता बन जाते हैं तथा जो नासमझ व कम अक्ल होते हैं वो वोटर बन जाते हैं! बस यही लूट व शोषण का धंधा राजनीति कहलाता है! विज्ञान,शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार,प्रबंधन, अध्यात्म, योग, दर्शनशास्त्र आदि क्षेत्रों में भी यही सब लूटखसोट, धींगामस्ती, अपना- अपनी चल रही है!और आश्चर्य देखिए कि दुनिया में मूढों के बहुमत की भीड में यही पागलपन व्यवस्था, कानून,मर्यादा नामों से प्रचलित है!
श्रीमद्भगवद्गीता में तो ऐसे व्यवहार की सीख कहीं भी नहीं है! महाभारत युद्धभूमि में युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण या अर्जुन या युधिष्ठिर आदि द्वारा अन्य योद्धाओं के प्रति किए गए दुर्व्यवहार में सिर्फ व सिर्फ जैसे को तैसे व्यवहार की झलक है! इनके व्यवहार को धोखाधड़ी नहीं कह सकते!इनके व्यवहार में कोई स्वार्थ आदि नहीं है! लेकिन आजकल तो सरेआम गीता की शिक्षाओं की आड में दुकानदारी, व्यापार, स्वार्थ आदि देखने को मिलते हैं! ऐसे लोगों के लिए त्रिगुणात्मक या त्रिगुणातीत या सत्व-रज-तम से कोई मतलब नहीं है! इनका एकमात्र लक्ष्य अनुयायियों को मूर्ख बनाकर अपना साम्राज्य खड़ा करना है! और यह कार्य धार्मिक या सात्विक या नैतिक या करुणामय बनकर नहीं हो सकता है! इसके लिए व्यक्ति के भीतर एकतरफा भौतिकता, तामसिकता और स्वार्थ का होना आवश्यक है! ऐसे लोग सोचते हैं कि पहले जैसे -तैसे करके धन- दौलत का अंबार तो खड़ा कर लें! धर्म, अध्यात्म, योग, साधना, नैतिकता, करुणा, समता आदि को फिर कभी बाद में देख लेंगे! बस यह करते- करते ये तथाकथित धार्मिक गीता -प्रेमी लोग व्यापारी बनकर रह जाते हैं! ऐसे लोग अपने अनुयायियों से धन -दौलत व मोहमाया का त्याग करने के उपदेश देकर स्वयं एक -एक कथा, सत्संग, शिविर आदि से चंदे व दान से करोड़ों रुपये कमाकर -कमाकर रियल एस्टेट और शेयर बाजार में लगा देते हैं! यह तो धर्म नहीं है, यह तो नैतिकता नहीं है, यह तो अध्यात्म नहीं है, यह तो गीतोपदेश का प्रचार व प्रसार नहीं है! इससे सनातन धर्म का उपहास हो रहा है! इसमें न तो कहीं त्रिगुणात्मक संसार के प्रति सम्मान है तथा न ही त्रिगुणातीत होने की सीख है!

आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119

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