द्रौपदी का चीर हरण
द्रौपदी का चीर हरण
महाभारत की नायिका सुन्दर प्रतिमा नारी,
अग्नि कुंड में जन्मीं ,वैभवशालनी,ज्ञानी थी।
अभिमान से कर बैठी थी हास – परिहास।
चौसर में हारे सब पांडव द्रुपद सुता को भी।
क्रूर दुर्योधन ने दु:शासन से केश पकड़ बुलाया,
राजसभा में बैठे धृतराष्ट्र, पितामह, द्रोणाचार्य,
शूरवीर सम्मानित जन सब मल रहे अपने हाथ।
ग्लानि से विदुर छोड़ कर चले गये थे दरबार।
कर्ण की शब्दभेधी वाणी पांचाली को निर्वस्त्र करो।
हाथ जोड़ खड़ी द्रौपदी, ऑंखों में आक्रोश भरा।
दुर्योधन कह रहा,जंघा पर देता हूं आसन।
स्वाभिमान बचाने की नियति में वह उलझी पड़ी।
केश लट उसके बिखरे,मुख पर क्षोभ घना था।
याद आये उसको कन्हैया,बचपन का था प्यार।
दर्पयुक्त दु:शासन वस्त्र खींचता जा रहा था।
कृष्णा का क्रंदन विलाप हवा में डोल रहा था।
मद में डूबे थे कौरव जान न सके उसकी पीर।
चीर खींचते खींचते हाॅंप रहा था दु:शासन।
निर्वस्त्र न कर सके कौरव क्षमता के पार गई।
न समझे वे कृष्ण का वास मलिन रजस्वला चीर में।
रक्षक नंद नंदन भगवान श्याम सलोने साथ में।
अब उसका कौन बिगाड़ सके गा जय गोविन्दा।
जय कान्हा जय मुरली मनोहर जय-जयकार।
फिर से आजा मेरे कन्हैया तेरी ही दरकार।
__डाॅ सुमन मेहरोत्रा,
मुजफ्फरपुर, बिहार