पुस्तक समीक्षा कर्मफल भावार्थ सहित
पुस्तक समीक्षा
कर्मफल भावार्थ सहित
मानव जीवन तमाम विडंबनाओं, विसंगतियों से भरा है, जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए कब हमारे जीवन की दिशा बदल जाती है, हमें पता ही नहीं चलता।
कुछ ऐसा ही हुआ आ. दिनेश गोरखपुरी जी के साथ। जिसके फलस्वरूप हमें “काव्य परंपरा से मुक्त- नवोन्मेषी पहल” पर आधारित पुस्तक के अवलोकन का लाभ “कर्मपथ भावार्थ सहित” नामक उनकी पुस्तक से हुआ।
जिसे उन्होंने अपने अंत:करण की आवाज को शब्दों में नवान्वेषी सृजन के माध्यम से सरल, सहज और आमजन को आसानी से समझ में आने वाले शब्दों की अभिव्यक्ति से मानव जीवन के अनेकानेक अनसुलझे सवालों का हल नर- नारायण के माध्यम से गद्य और पद्य दोनों माध्यमों से एक साथ प्रस्तुत करने का दुस्साहस दिखाया है।
दुस्साहस इसलिए भी हो सकता है पुस्तक को पढ़ते हुए ऐसा लग सकता है अरे! ये सब तो मैं पहले से ही जानता हूँ, गोरखपुरी जी ने नया क्या दिया है। ठीक भी है कि गोरखपुरी जी ने नया कुछ नहीं दिया, लेकिन उन्हें आपकी सोच चेतना को जागृति करने की अत्यंत सरल भाव से कोशिश है।
इस कोशिश को सार्थक सारगर्भित बनाने के लिए उन्होंने गद्य और पद्य का का सहारा लिया और क्रमानुसार प्रस्तुत किया है ,और इसलिए भी कि आज जब हम अपने दैनिक जीवन मे इस कदर उलझे हैं। जब हमें अपने या अपनों के लिए समय ही नहीं है।
जीवन का जैसे मशीनीकरण हो गया है। पाठन पार्श्व में कराह रहा है। सोशल मीडिया हमें गुलाम बनाता जा रहा है।( यूं तो हमारे जीवन में शिक्षा कला साहित्य संगीत का बहुत प्रभाव पड़ता है ।) ऐसे में एक पुस्तक (छोटी सी सही, जिसे आधुनिक लघु गीता सरीखा भी कह सकते हैं) को लोग कितना महत्व देते हैं,यह तो भविष्य के गर्भ में है।
लेकिन यदि कुछ लोग भी इस पुस्तक को ईमानदारी से पढ़कर चिंतन मनन करते हैं और किसी बाहरी व्यक्ति को न सही सिर्फ अपने परिवार के सदस्यों को ही केवल एक बार भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, तो मैं समझता हूं कि उस परिवार के जीवन की दिशा में कुछ न कुछ बदलाव अवश्यंभावी है। जिसका असर उनके और उनके परिवार के जीवन में जरुर दिखेगा।
जैसा कि प्रकाशक दीप प्रकाशन के अनुसार- यह सृजन समाज में एक नया संदेश लेकर आ रहा है।
डा.अविनाश पति त्रिपाठी कहते हैं कि इस पुस्तक की जितनी सराहना की जाए वह कम ही है।
सशक्त कवयित्री डा. सरिता सिंह की दो पंक्तियां काफी कुछ संदेश देती हैं-
माया है ठगनी सदा,काया का न मोल,
ये साधु कर ले भजन जीवन है अनमोल।
माया मोह में फंसा व्यक्ति सदैव ही भौतिक सुखों के प्रति लोलुप रहता है।
अनिल कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि आम जनमानस को समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। जो समाज के लिए ऐतिहासिक सृजन सिद्ध होगी।
करुणेन्द्र जी (करन सिंह) का मानना है कि यह पुस्तक देश/ समाज के साथ ही संपूर्ण मानव समाज के लिए भी हितकारी है।
अरुण कुमार श्रीवास्तव (अरुण ब्रह्मचारी) जी पुस्तक को सभी के लिए एक लाभकारी दस्तावेज है और इसे एक दस्तावेज के रूप में उत्तम ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
ज्ञानेश मणि त्रिपाठी का विचार है पुस्तक अपने आप में एक अनोखी रचना है।जो स्फूर्ति: लगती है।
वरिष्ठ शिक्षिका / कवयित्री प्रेमलता “रसबिंदु” इसे महाकाव्य के रूप में सृजित मानती हैं।
सात अध्यायों में प्रस्तुत पुस्तक का अध्यायों में प्रथम- वंदना, द्वितीय- शांति की खोज, तृतीय- कर्म भाव, चतुर्थ- मर्म का ज्ञान, पंचम- धरती की उत्पत्ति, षष्टम- जीव की उत्पत्ति और सप्तम अध्याय- जीव की उत्पत्ति में अत्यंत ही सारगर्भित, सरल सहज ग्रहणीय भाव से सलीके से प्रस्तुत किया है।
जिसे शांत चित्त से पढ़ने पर बहुत ही बहुमूल्य और चिंतन मनन करने पर जीवन में उतारने की प्रेरणा बलवती होती महसूस होगी।
अंत में गोरखपुरी जी ने अपने नवान्वेषी पांच भजन भी प्रस्तुत किया है जो संभवत: आमजन को आध्यात्मिक गहराई की ओर ले जाने का अनूठा अनुबंध है।
अंत में आकर्षक सम्मोह मुखपृष्ठ के साथ आप लिखते हैं कि- ” यह धरती कर्म भूमि है, जो आप करते हैं, उसका फल यहीं मिलना निर्धारित है, इसके अलावा कहीं और स्वर्ग नरक नहीं है “।
अंतिम कवर पृष्ठ पर गोरखपुरी जी लिखते हैं कि “कर्म फल भावार्थ सहित” मानव जीवन में अनेकों अनसुलझे पहलुओं को सुलझा कर मानव समाज को आत्ममंथन करने के लिए अग्रसर करता है। हमारे सुकर्म ही परमपिता परमेश्वर की सबसे बड़ी पूजा अर्चना है।
मेरा मानना है कि पुस्तक को पढ़ते समय इसकी तुलना किसी धर्म ग्रंथ से करने के बजाय अपने जीवन की कठिनाईयों के सरल, सहज हल पाने के भाव से आत्मसात किया जायेगा, तो अधिक बेहतर, सकारात्मक परिणाम मिलेगा। अन्यथा तुलनात्मक तराजू में तो विधान, मात्रा, अलंकार वह अन्य प्रकार की अशुद्धियों की भेंट चढ़ जाएगा।
अंत में सिर्फ इतना ही कि मानव समाज के लिए उपयोगी दस्तावेज़ के रूप में “कर्मफल भावार्थ सहित” सर्वहितकारी और वर्तमान समय के लिहाज से उत्तम लघुग्रंथ सरीखा है।जिसकी उपादेयता ही आ. दिनेश गोरखपुरी जी की उपलब्धि है।
क्योंकि सात्विक प्रवृत्ति और धर्मप्रेमी, संवेदनशील दिनेश गोरखपुरी ने अपने अंत:करण के साथ साथ अपने जीवन के अनुभवों को इस पुस्तक का आधार माना है।
बतौर सामान्य पाठक और आम व्यक्ति के तौर पर मैं इस लघुग्रंथ की सफलता के प्रति निश्चिंत हूं और दिनेश गोरखपुरी जी को अशेषाशेष बधाइयां और शुभकामनाएं देते हुए उनके हौसले को बारंबार नमन करता हूं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश