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घरौंदा ( लघुकथा)

घरौंदा ( लघुकथा)

भारत में रह रही मम्मी से मिलने की बात बीबी से करता है रोहित।
“मेरी डार्लिंग! मेरी छुट्टी को भी मंजूरी मिल गई है”
“हां सुनो, मम्मी के लिए खास शॉपिंग कर लेना,जो उन्हें पसंद है,तुम तो जानती ही हो की मम्मी कितनी चूजी हैं।”
“हां रोहित मैं जानती हूं… मैं भी उनसे मिलने के लिए आतुर हूं। कितने अच्छे हो गए उनसे मिले हुए….”
“मम्मी इकलौता बेटा रोहित और बहू के स्वागत में लगी हुई थी।”
“बेटा बहू की आने की खुशी में पांव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे… अरे वो कांता! जल्दी से इधर आ.. पैसे ले और जल्दी से बाजार जा…. गरम-गरम जलेबियां और राबड़ी ला दे। मेरे रोहित को बहुत पसंद है। आज उसे मैं अपने हाथों से खिलाऊंगी।
“हां मम्मी! आपकी हाथों से कितने दिनों बाद खाऊंगा। ”
डाइनिंग टेबल पर खाते रहे और बातें
चलती रही…. बातों -ही -बातों में मम्मी की बातों को काटते हुए………..रोहित बोला-“मम्मी ये घर पुराने डिजाइन का है… इसे हम क्यों ना बेच दें ….?”
“रोहित की बात सुनते ही मम्मी को मानो बिजली की करंट लग गई हो, पांव के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई हो। फिर जैसे -तैसे अपने को संभाला।”
“बेटा ! तुम्हारी बातों से मैं बहुत आहत
हुई हूं।”
“मम्मी ने कहा-“तेरे पिता ने एक-एक पाई जोड़कर, खून पसीना एक करके इस छोटे से घरौंदे को बनाया, सजाया
फिर तुम इसी में पलकर बड़े हुए हो..”
“मैं भी उनकी आखिरी निशानी मानकर यादों के सहारे जी रही हूं। एक ये भी सहारा…तुम बेचना चाहते हो..?”
बहू ने बेटा और मम्मी की बातों को काटते हुए कहा”मम्मी जी ये क्या समझेंगे..? इस दर्द को मैं बेहतर समझती हूं। मैंने अपने घर में देखा है .. महसूस किया है… मैं इन्हें हरगिज ऐसा नहीं करने दूंगी। घरौंदे का और आपका मान जरूर रखूंगी।

डॉ मीना कुमारी परिहार

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