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11 सितम्बर विनोबा भावे की जयंती पर विशेष

11 सितम्बर
विनोबा भावे की जयंती पर विशेष

देव नागरी लिपि : दार्शनिक पक्ष

भारत समाज सुधारकों, संतों, ऋषियों और महान दार्शनिकों की धरा है। इन्हीं कारणों से विश्व पटल पर, भारत की पहचान बिल्कुल ही अलग है। इसी कारण संत और समाज सुधारक विनोबा भावे के व्यक्तित्व की पहचान भी समय के साथ में बनी रहेगी।
जीवन और मरण दोनों ही आनंद की स्थिति होनी चाहिए। इन दो स्थितियों के बसा जीवन भी संवाद के दौरान आनंद से तरंगित हो। जीवन में एकरूपता हो। हम सब एक दूसरे को एक लिपि के माध्यम से जानें और समझें। ऐसा था विनोबा जी का नारा ‘जय जगत’।
आज स्थिति दूसरी है। आज सोशल मीडिया बहुत प्रभावी माध्यम है वहां हिंदी भाषा को रोमन में लिखा जा रहा है और धड़ाधड़ दिखा जा रहा है। यह तक नागरी लिपि के लिए घातक है। इस प्रवृत्ति के परिणाम नागरी लिपि के भविष्य को चुनौती हैं। इसे आप सहज न लें।
हम भारतवासियों की हिंदी भाषियों की यह आदत हो गई है कि हम हिंदी में अंग्रेजी शब्दों को बहुत बड़ी मात्रा में ले आए हैं। कोई भी वैश्विक भाषा इस प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करती है। इटली की सरकार इटालियन भाषा के संरक्षण के लिए दण्ड का प्रावधान ले आई है।
लोग हिंग्लिश में पुस्तक लिखने लगे हैं। सिनेमा/ फिल्मों में नायक नायिका को देवनागरी लिपि का ज्ञान नहीं है।इस कारण फिल्म की स्क्रिप्ट रोमन में लिखी जा रही है। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में स्पष्ट लिखा है की राजभाषा हिंदी होगी और देवनागरी लिपि में लिखी जाएगी।
हम हिंदी भाषा, उसके उच्चारण और देवनागरी लिपि के उस कल से गुजर रहे हैं जहां हमें नागरी लिपि के उच्चारण, उच्चारण में उपयुक्त ऊर्जा, ऊर्जा का प्रवाह और नागरिक के वर्णन में छिपे जीवन दर्शन की बात करनी होगी ताकि युवा पीढ़ी इस तथ्य से अवगत हो सके। नागरी लिपि में छिपे दर्शन से परिचय पा सके।
हमें हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखने के लिए, अपने आस-पड़ोस और मित्रों को समझाना और प्रोत्साहित करना होगा। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। हमें हर दिन प्रणपूर्वक और प्रेमपूर्वक अपने पड़ौसी, अपने मित्र को देवनागरी के ध्वनि तंत्र, ध्वनि तंत्र में प्रयुक्त ऊर्जा, ऊर्जा की उठान और अस्तित्व से जुड़ाव की बात करनी होगी।
जीवन एक तरंग की भांति है। जीवन में तर्क भी है। जीवन में प्रेम, काम, क्रोध आदि ये सब तरंगे हैं। देवनागरी लिपि तरंग और तर्क का जोड़ है।
अतः देवनागरी सीखो। देवनागरी में लिखो।
विनोबा भावे को गांधीवादी कहा जाता है। वे विज्ञान और गणित में निपुण छात्र थे। लेकिन जीवन और जगत को जानने की प्यास में, वे हिमालय की राह चल पड़े थे। हिमालय की राह जब वे रेल में थे तो वे शिव का धाम, काशी में ही उतर गये। उन्हें पता चला कि महात्मा गाँधी काशी में हैं। काशी में उन्होंने गाँधीजी को खबरों में पढ़ा और पत्र लिख भेजा। इस पत्र का उत्तर मिला और वे गाँधी जी से मिलने वर्धा पहुँच गये। उनकी हिमालय की यात्रा की दिशा देश सेवा में बदल गई। कुछ ही समय बाद वे स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े।
मैंने विनोबा भावे को आनलाइन उपलब्ध चित्रों में देखा है। एक शांत, निर्भीकता और भोलापन उनके चेहरे का आकर्षण है। मुझे लगा कि इस व्यक्तित्व को पढ़ने के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए। विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर 1895 को हुआ था। उनका जन्म का नाम विनायक था। उसने माँ का सा स्वभाव पाया था। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार और भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने का श्रेय, बचपन में विनोबा के मन में, संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में, उनकी मां रुक्मिणी बाई को जाता है।
नागरी लिपि के महत्व को रेखांकित करते हुए आचार्य विनोबा भावे ने कहा था “हिंदुस्तान की एकता के लिए हिंदी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी देगी। इसलिए मैं चाहता हूं कि सभी भाषाएँ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियाँ चलें, लेकिन साथ साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये।”
विनोबा भावे “नागरी ही” नहीं “नागरी भी” चाहते थे। उन्हीं की पहल और प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई थी। नागरी लिपि परिषद, भारत की एक अकेली ऐसी संस्था है, जो नागरी लिपि के प्रचार प्रसार का अनवरत काम कर रही है।
पं जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में,1961 में, सम्पन्न मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में, प्रस्ताव रखा गया कि “भारत की सभी भाषाओं के लिए एक लिपि अपनाना वांछनीय हैं। इतना ही नहीं, यह सब भाषाओं को जोड़ने वाली एक मजबूत कड़ी का काम करेगी और देश के एकीकरण में सहायक होगी। यानि जोड़ लिपि का काम करेगी।
नागरी लिपि का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है कि देवनागरी लिपि में सभी गुण हैं। इन गुणों के ठोस आधार पर, यह लिपि सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ने में सक्षम है। इसी कारण इस लिपि को संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि कहा जाता है।
यहाँ मुझे एक इटालियन यात्री फिलिप्पो सास्सेती याद आते हैं। उनका उल्लेख करना भी जरूरी है। वे एक इटालियन नागरिक थे। वे पुर्तगाली कम्पनी में अधिकारी थे। वे पुर्तगाली कम्पनी के अधिकारी के रूप में, 1583 -1588 में कोचीन, भारत में रहे। उन्होंने, भारत में रहकर, संस्कृत भी सीखी। भारत में रहते हुए उन्होंने बहुत सारे पत्र इटालियन भाषा में लिखे हैं। उनके ये सभी उपलब्ध पत्र, भारतीय पत्र (Lettere Indiane) के शीर्षक के साथ 1942 में प्रकाशित हुए। इन पत्रों को एनाउदी प्रकाशन ने प्रकाशित किया था। मुझे यह पुस्तक सितम्बर 2022 में, इटली के पेरूजा शहर के साप्ताहिक बाजार में, दिखाई पड़ी तो मैंने इसे खरीद लिया। इन दिनों मैं इन इटालियन भाषा में लिखे पत्रों का हिंदी अनुवाद कर रहा हूँ।
इस पुस्तक के पृष्ठ 49 पर, पत्र क्रम 10 में, फिल्लिपो सास्सेति लिखते हैं “प्लिनी (इतालवी दार्शनिक) ने भी ब्राह्मणों के बारे में उल्लेख किया है। वह इन पूर्वी लोगों के व्यवहार के बारे में विस्तार से लिखता है। प्लिनी कहते हैं: ब्राह्मण, शब्दावली और ध्वनि के संकलन कर्ता हैं। वे अपनी भाषा, संस्कृत में, बहुत निपुण हैं।”
इसी पत्र में अगले पृष्ठ 50 पर वे लिखते हैं “इनकी भाषा स्वयं में बहुत ही रमणीय और सुन्दर ध्वनि देने वाली है। इस भाषा में 53 वर्ण हैं। जिनमें से सभी बोले और वैसे ही लिखे जाते हैं। इन सभी वर्णों का जन्म मुंँह और जीभ की विभिन्न, ध्वनियों और गतिविधियों से होता है। ये हमारी सभी अवधारणाओं को आसानी से अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं। ये लोग मानते हैं कि हमारी भाषा के वर्णों की संख्या, इनके वर्णों से आधी या उससे भी अधिक की कमी के कारण, हम अपनी ही भाषा में इनके जैसा उपयोग नहीं कर सकते।”
दूसरे शब्दों में यदि मैं यह कहूं तो अतिशयोक्ति न होगी कि मानव देह की, मानव मन की अभिव्यक्ति की सबसे सशक्त लिपि है नागरी। मानव द्वारा उच्चरित हर स्वर को शब्दों में, शक्ल देने की क्षमता है नागरी लिपि में।
नागरी लिपि का एक-एक वर्ण मंत्र है और नागरी लिपि में लिखा एक एक शब्द महामंत्र है।
इन अर्थों में देवनागरी लिपि में छिपे दर्शन को समझना जरूरी है। हम सब भलीभाँति जानते हैं कि वचन और अर्थ पूरक हैं। शब्द हो और उसका अर्थ न हो तो उस शब्द का कोई औचित्य नहीं है। अर्थ हो और उसे शब्दों में बताया न जा सके या अर्थ को शब्दों में परिभाषित न किया जा सके तो उसका भी कोई औचित्य नहीं है।
वाक और अर्थ का जोड़ अन्तर्दृष्टि के धरातल से है। वाक, अर्थ और अन्तर्दृष्टि के धरातल का पुल अनुभूति है। अनुभूत ही मानव के चिंतन की जड़ों को सींचता और पोषित करता है। यह सब आपकी इन्द्रियों और साँसों से जुड़ा है। हर साँस हमारे होने, हमारे अस्तित्व के मूल तक पहुँच बनाती है। मानवदेह के अस्तित्व का मूल है उसका अधिष्ठान चक्र। जिसे योग ने मूलाधार चक्र कहा है। मानव देह में, साँसों के बीच विद्यमान है एक सतत ऊर्जा। वही जीवन है। वही देह की कान्ति है।
संवाद के लिए बोलना आवश्यक है। लेखन के लिए भाषा आवश्यक है। भाषा के लिए शब्द आवश्यक हैं। शब्द लेखन के लिए वर्ण का होना जरूरी है। वर्ण के लिए ध्वनि आवश्यक है। देह से ध्वनि को प्रकट करने के लिए ऊर्जा आवश्यक है। ऊर्जा के लिए देह के तल आवश्यक हैं। विभिन्न ध्वनियाँ निकालने के लिए विभिन्न अंग और तल आवश्यक हैं। यानि ध्वनियों की तरंगों को विभिन्न धरातल चाहिए। ध्वनियों के प्रकटीकरण के लिए विभिन्न तल, विभिन्न दिशाएँ, विभिन्न शिराएँ और निकास द्वार चाहिए। इससे भी आगे ध्वनि की ऊर्जा को खुला आकाश भी चाहिए।
देह की ऊर्जा, शब्द और अर्थ से जुड़ी है। देह की ऊर्जा ही शब्दों को सम्प्रेषित करती है। ये शब्द वर्णों का गठजोड़ हैं। बोलने या लिखने के लिए वर्णों का उपयोग शब्दों में करना होता है। यह सब लिपि पर टिका है।
भारतीय ऋषियों ने और इसी श्रंखला में पाणिनि ने नागरी लिपि के माध्यम से देह की सर्वांगीण ऊर्जा को वर्णों में, अक्षर में बाँधने का या उसे परिभाषित करने का बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया है। नागरी लिपि बहुत गूढ़ शोध की उपज है। इस लिपि का सृजन मनुज देह में देवत्व का दर्शन है। यह लिपि, मनुज देह में, देवत्व को परिभाषित करती है। इसीलिए इसे देवनागरी नाम दिया गया है।
ध्वनि, पुकार या संवाद के समय, वर्णों और शब्द के कहन, गायन से उपजी देह ऊर्जा के उतार, चढ़ाव और ऊर्जा की यात्रा के साक्षी भाव का दर्शन, आम जीवन में एक ऐसा, एक अनदेखा अध्याय है। जिस पर सतत चर्चा होनी चाहिए। सजगता के इस महत्वपूर्ण सोपान पर संवाद होना चाहिए।
हम कोई भी भाषा बोलें, उसमें उपयुक्त हर स्वर या ध्वनि उच्चारण के समय, हर मानव, साक्षी भाव की दर्शन क्रिया से गुजरता है। उदाहरणार्थ संविधान की शपथ के समय, प्रार्थना के समय, अजान के समय, राष्ट्रीय गीत के समय, न्यायालय में शपथ दिलाकर साक्षी बनना, साक्षी भाव का सुंदर उदाहरण है। साक्षी भाव दर्शन मौन में तो सम्भव है ही।
कभी आपने अपनी भाषा के वर्णों और शब्दों का उच्चारण करते हुए, अपनी देह के विभिन्न तलों पर घटती, बढ़ती ऊर्जा की ओर ध्यान दिया है ? आपके उच्चारण के समय आपके होट, जीभ, नासिका, कण्ठ और उससे भी आगे, आपकी रीढ़ के तल तक चोट करती ऊर्जा पर कभी आपका ध्यान गया है ? सामान्यतः हम इस ओर ध्यान नहीं देते। शायद इसलिए कि ये सब विरासत में मिला है। विरासत में मिले को हम गम्भीरता से नहीं लेते हैं।
सुरेंद्र बंसल लिखते हैं “भाषा का प्रत्येक स्वर, भाषा का प्रत्येक शब्द और प्रत्येक वाक्य, हजारों करोड़ों मानवीय अनुभवों, परिवर्तनों और क्रियाओं के पदचिह्न हैं।” उन्हीं की बात को आगे बढ़ाते हुए मैं जोड़ना चाहूँगा कि इस सबकी संवाहक है लिपि।
ध्वनियाँ हमारी देह से निकलती हैं। ये ध्वनियाँ हमारे अस्तित्व का जोड़ हैं। सामान्यतः हम बाहर के जगत को देखने में व्यस्त रहते हैं। ध्वनियाँ और संवाद हमारे आंतरिक जीवन का छोर हैं। हमें अपने अंतर के जगत को प्राथमिकता से देखना होगा। यही दर्शन है।
हम सामान्यतः स्वयं की ऊर्जा पर प्रयोग और शोध की बातों से भी बचते हैं। जबकि शोध की राह, हमारे जीवन की सर्व सम्पन्न विरासत है। शोध की राह ही दर्शन है। यही जीवन और जगत का सत्य उद्घाटित करता है।
हमारी अपनी देह के तल पर तैरती, घटती और बढ़ती ऊर्जा पर ध्यान, जीवन का सबसे सहज और गहन शोध है। इसके अतिरिक्त जीवन से जुड़ी बात चाहे घरेलू हो, शैक्षिक हो, वैदिक साहित्य हो, दार्शनिक हो, लिपिगत हो, चिकित्सा शास्त्र की हो, ज्योतिष की हो। तथ्यों के साथ शोध, जीवन और जगत को नई दिशा देता है। हमें जीवन की बारीकियों की तह का पता देता है।
मेरे देखे, नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष की बात के साथ साथ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ा बहुत जान लेना बहुत जरुरी है।
भारत के तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय बहुत ही समृद्ध और महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थान थे। सुना है कि तक्षशिला विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था। इसकी स्थापना सातवीं ईसा पूर्व में की गई थी। विश्व का दूसरा विश्विद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय रहा है। नालंदा, वर्तमान बिहार राज्य के नालंदा जिला में स्थित है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में तो पूरे विश्व के 10,500 से भी अधिक छात्र अध्ययन किया करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय, यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र, सर्वोपरि केन्द्र था।
आँकड़े यह भी बताते हैं कि 1850 तक, भारत में लगभग साढ़े सात लाख गाँव थे। साथ ही इस समय, सात लाख तीस हजार गुरुकुल भी थे। यानि औसतन लगभग हर गाँव में एक गुरुकुल था। इन गुरुकुलों में 18 विषय पढ़ाये जाते थे। ये सब तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि भारत में उस समय एक बहुत ही व्यवस्थित और विकसित शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुलों में शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी। इन गुरुकुलों को राजा महाराजाओं का प्रश्रय नहीं था।
उस समय, उत्तर भारत में 97 प्रतिशत और दक्षिण भारत में पूरी सौ प्रतिशत साक्षरता थी। साक्षरता के ये तथ्य दो अंग्रेज अधिकारियों, जी. डब्ल्यू. लूथर के उत्तरी भारत और थोमस मुनरो के दक्षिण भारत के साक्षरता सर्वे पर आधारित हैं।
भारत के औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का एक ही उद्देश्य था। भारत के इस शैक्षणिक ताने बाने को तहस नहस कर, इस देश को गुलामी की जंजीरों में कस देना।
भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक, मैकाले ने तो स्पष्टतः कहा था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को नष्ट करके ही इस देश को सदा सदा के लिए गुलामी की बेड़ियों में बांधा जा सकता है। उनका एक ही मत था कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सफाया कर, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का ढाँचा खड़ा किया जाये ताकि अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र, दिखने में भारतीय लगेंगे लेकिन वे अंग्रेजी व अंग्रेजों का हित साधेंगे।
मैकाले का कहना था कि जैसे फसल उगाने के पहले खेत को पूरी तरह जोत दिया जाता है उसी तरह भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को भी जोतना होगा। साथ ही अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था भी खड़ी करनी होगी। अपने इसी कथन को सिद्ध करने के लिए मैकाले ने अंग्रेजी सत्ता से पहले गुरुकुल व्यवस्था और बाद में संस्कृत को गैरकानूनी घोषित करवाया। इस तरह गुरुकुलों को समाज से मिलने वाला आर्थिक सहयोग, कानून की खिलाफत हो गया। कानून की खिलाफत करने वालों को जेल की सजा मिलने लगी। कहते हैं कि अंग्रेजों ने गाँव बस्तियों में जाकर, गुरुकुलों को जला डाला।
मैकाले की योजना को क्रियान्वित करने के लिए अंग्रेजों ने सबसे पहला कान्वेन्ट स्कूल कलकत्ता में खोला था। इसके बाद अंग्रेजों ने कलकत्ता, मुम्बई व मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की। ये तीनों ही विश्वविद्यालय आज भी मौजूद हैं।
ये सब बातें यहाँ साझा करना इसलिए आवश्यक है कि अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत को मटियामेट करने में कमी नहीं छोड़ी। इस तथ्य से हर भारतीय को परिचित होना चाहिए ताकि वह अपनी शैक्षणिक और सांस्कृतिक विरासत के विषय में सजग हो सके।
दूसरी बात यह कि भारतीय शिक्षा की मूलाधार लिपि, नागरी लिपि की महत्ता व उसके दार्शनिक पक्ष के साथ जीवन मूल्यों को रेखांकित करना है।
नागरी लिपि की उपेक्षा के कारण भी हैं। इस लिपि का एक महत्वपूर्ण कारक भी है। यह कारक है नागरी लिपि का दार्शनिक पक्ष। जैसा कि मैंने पहले लिखा। हमारा ध्यान नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष पर नहीं गया है। इस बारे में हमें, कहीं पढ़ाया भी नहीं गया है। यह व्यवस्था की एक बहुत बड़ी खामी रही है। यानी नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष को सामने न लाना अधूरापन है। यह भारतीय दर्शन को जानने एवं समझने की राह में बहुत बड़ी चूक रही है। नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष पर शोध होना भी बहुत जरूरी है। इस शोध को मातृभाषाओं और बोलियों के क्षेत्र तक ले जाना हमारा काम है। इससे मातृभाषाएँ और बोलियाँ भी बचेगी। साथ ही लिपि भी बचेगी और हमारी संस्कृति भी संरक्षित होगी।
नागरी लिपि देह के दर्शन की उपज है। इन अर्थों में नागरी जीवन दर्शन से परिपूर्ण है। नागरी लिपि के वर्ण, एक-एक वर्ण मंत्र हैं। मंत्र होने का अर्थ, अस्तित्व की ऊर्जा की परिपूर्णता, अस्तित्व से समग्र सामंजस्यता से है। इसीलिए नागरी लिपि के वर्णों को अक्षर कहा गया है। अक्षर यानी जिनका क्षर न हो।
एक बात चार्वाक दर्शन पर भी। चार्वाक दर्शन का मत था:
“यावत जीवेत सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतम पीबेत।” अर्थात जब तक जीओ, सुख से जीओ। कर्ज लेकर भी घी पीओ।
चार्वाक के इस मत के प्रतिपादन ने भारतीय ऋषियों को झकझोर दिया था। चार्वाक के बाद, ऋषियों के जीवन के प्रति गहन ध्यान और शोध स्वरूप, भारतीय दर्शन ने जीवन की नई ऊँचाइयों को छूआ। इसी के फलस्वरूप आप नागरी लिपि में, जीवन की नई ऊँचाइयों को छूने वाले, दार्शनिक शब्दों की भरमार पाएंगे। ये शब्द दूसरी भाषाओं में नहीं हैं। कम से कम अंग्रेजी भाषा में तो नहीं हैं। वर्तमान में, इनमें से बहुत से शब्दों ने पाश्चात्य जगत में भी अपनी ठोस पहचान बना ली है। मैं यहां कुछ शब्दों का उल्लेख करता हूं :
मंत्र, सूत्र, योग, शांति, कर्म, अवतार, सम्यक, ब्रह्म, जीवात्मा, प्रकृति, स्थितप्रज्ञ, स्वीकार भाव, साक्षी भाव, सत् चित्त आनंद, ब्रह्म मुहूर्त, सत्यम शिवम सुंदरम, निर्वाण, मंगल, भक्ति, श्रद्धा और शुभ आदि। ऋषियों ने इन शब्दों और इन शब्दों में उपयुक्त वर्णों के माध्यम से जीवन के दर्शन को खड़ा किया।
नागरी लिपि के इन दार्शनिक शब्दों के समानार्थी शब्द रोमन लिपि में नहीं हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है।रोमन लिपि की क्षमता नागरी लिपि की अपेक्षा पचास प्रतिशत कम है। उसमें केवल छब्बीस वर्ण हैं।
एक प्रश्न हमारी सांस्कृतिक जड़ों से भी जुड़ा है। यह कि हम मंत्र बोलने लिए, हम विशेष अवसरों पर, मंत्र उच्चारण के लिए पंडित के पीछे क्यों भागते हैं? क्या आपने कभी इस विषय में सोचा है ?
हम पंडित के पीछे इसलिए भागते हैं कि हम मंत्र उच्चारण से देह के दर्पण में, स्वयं को देख सकें। मंत्रोच्चार कर, अपने आप में, झाँक सकें। चेतना की यह पकड़ जन-जन में देखने को मिल जाएगी। नागरी के वर्णों में चेतन के शीर्ष तक पहुंचाने की क्षमता है।
हमारे पाणिनि जैसे महर्षि और ऋषि नागरी लिपि के वर्णों के जरिए, साधना की राह उतरकर, चेतना के तार तार का पता पा सके। वे सहज ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘ओम शांति’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ कह सके।
देवनागरी लिपि के वर्ण, मानवीय देह की ऊर्जा की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। देह ऊर्जा को यदि हम नहीं समझ सकते तो हम जीवन और जगत को नहीं समझ पायेंगे। देवनागरी लिपि के वर्ण सजगता का पायदान हैं। देवनागरी लिपि के वर्ण आत्मिक विकास की सीढ़ी हैं।
“मैं कौन हूँ?” यह वाक्य एक महामंत्र है। यदि आप इस वाक्य का लगातार और बार बार उच्चारण के समय, साक्षी भाव से देखेंगे तो एक स्थिति आयेगी। जिसमें आप कह सकेंगे “अहम् ब्रह्मास्मि।”
“Who am I” का उच्चारण भी अवश्य करके देखें और “मैं कौन हूँ” का उच्चारण भी करके देखें। ऐसा करने भर से आपको अपनी देह की ऊर्जा द्वारा अभिव्यक्त वर्णों की क्षमता समझ में आ जायेगी।
अक्षर ब्रह्म है। यही कारण है कि दुनिया भारतीय दर्शन का लोहा मानती है।
जिस लिपि में इतनी क्षमता हो और उसका ह्रास हो रहा हो, लिपि का उपयोग ना हो रहा हो। यह कमी हम में है। यह कमी व्यवस्थागत है। रोमन लिपि के 26 वर्ण यानी नागरी लिपि के पचास प्रतिशत वर्ण, नागरी लिपि पर सूरज ग्रहण लगा रहे हैं। यह अनदेखी हम कब तक सहेंगे ? केवल इसलिए की रोमन लिपि में तकनीक उपलब्ध है। रोमन लिपि में पुस्तकें उपलब्ध हैं। प्रश्न यह है कि आखिर इस तकनीक और पुस्तक सामग्री को अंग्रेजी भाषा के समानांतर नागरी में क्यों नहीं खड़ा किया गया ?
मैं यहां एक नोबेल पुरस्कार विजेता, अंग्रेज साहित्यकार, टी. एस. इलियट6 का नाम लेना चाहूंगा। जिन्होंने अपनी कविता The wasteland का अंत, शांति:, शांति:, शांति: शब्द के साथ से किया है। उन्होंने एक जगह भारतीय व पाश्चात्य दार्शनिकों की तुलना करते हुए कहा है कि पाश्चात्य दार्शनिक, भारतीय दार्शनिकों के समक्ष प्राथमिक पाठशाला के छात्र हैं।
एक अन्य उदाहरण है पॉप गायिका मैडोना। इन्होंने बीबीसी के माध्यम से बनारस के विद्वान वागीश शास्त्री से संस्कृत सीखी है। इस महिला के पास अपार धन है और अकूत लोकप्रियता भी। फिर क्या कारण है कि इस बहुत ही महान गायिका ने संस्कृत सीखने की ठानी ? आप इस प्रेरणा के पीछे क्या देखते या सोचते हैं ? क्या भारतीय दर्शन के पीछे नागरी लिपि कहीं लुप्त हो गई है ? हमारा अपना सामर्थ्य, नागरिक लिपि की इस क्षमता को देखने में सक्षम क्यों नहीं है ?
एकाहर्ट टोले वर्तमान में भारतीय दार्शनिक पक्ष के सशक्त समर्थक हैं। 2008 में, नीदरलैंड के शहर रोटरडम में, उनसे संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। वे हर समय अपने वक्तव्य में मंत्रों का उच्चारण करते हैं। भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। भगवत गीता को हाथ में लिए पढ़कर, भारतीय संस्कृति से जीवन जीने की सीख जानने और समझने की कहते हैं।
मातृभाषा की बात करते हुए हम प्रायः नागरी लिपि की वैज्ञानिकता की बात करते हैं। हमें नागरी के दर्शन पक्ष को भी सामने लाना होगा। केवल नागरी लिपि की वैज्ञानिकता की बात करना, अधूरी बात करने जैसा है। नागरी लिपि का अधूरा पक्ष प्रस्तुत करने जैसा है।
आइए दो शब्दों ‘बैठ’ व ‘नहीं’ और इन शब्दों में उपयुक्त वर्णों के उच्चारण और इनके उच्चारण के समय, देह में उपजी ऊर्जा और उस ऊर्जा की दैहिक यात्रा की बात करते हैं। ‘बैठ’ शब्द का जब जब भी आप उच्चारण करेंगे तो ‘बै’ वर्ण के उच्चारण के समय आपके होटों और मुख से उपजी ऊर्जा आपके कण्ठ के रास्ते, आपके सहस्रार की ओर गमन करती है। ‘बैठ’ शब्द के दूसरे वर्ण ‘ठ’ का उच्चारण करते समय उपजी ऊर्जा आपकी रीढ़ के तल तक चोट करती हुई, आपके धड़ में फैल जाती है। ‘ठ’ वर्ण घड़े का सा आकार ले लेती है।
मैं दूसरे शब्द ‘नहीं’ के उच्चारण की बात करूँ, इससे पहले एक आग्रह भी है कि आप अंग्रेजी के समानार्थी शब्द ‘sit’ व ‘no’ शब्दों का उच्चारण कर, अपनी देह में ऊर्जा की यात्रा पर ध्यान दें और तुलना भी अवश्य करें।
जब आप ‘नहीं’ ‘न’ और ‘हीं’ का उच्चारण करते हैं तो ‘न’ का उच्चारण, आपकी नासिका से उपजी ऊर्जा की उठान आपके सहस्त्रार तक जाती है। ‘न’ वर्ण के बाद ‘हीं’ का उच्चारण ‘न’ के उच्चारण से ऊर्जा की सहस्त्रार तक बनी पहुंच को रीढ़ के तल तक ले आती है। आपकी देह में, ‘नहीं’ का उच्चारण पूरा होते होते, ऊर्जा सहस्त्रार से लेकर रीढ़ के तल में, कील सी खड़ी हो जाती है।
इन दो शब्दों के माध्यम से मेरे कहने का आशय है कि नागरी लिपि, जीवन से जुड़ा बहुत गहन शोध है। आप इस पर गौर करें। ये वर्णों और शब्दों के उच्चारण के छोटे छोटे प्रयास, आपको अपनी देह की ऊर्जा के प्रवाह और ऊर्जा की पड़ती चोट, तल तक का पता देंगे। आपकी अपनी देह और अस्तित्व के प्रति आपकी सजगता को उत्तरोत्तर बढ़ायेंगे।
शायद आपने जे पी नौटियाल का नाम सुना होगा। वे, ‘हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है’ इस तथ्य को स्थापित करने के लिए, पिछले कई दशकों से प्रयासरत हैं। नौटियाल के मतानुसार “हिंदी भाषा को ‘एथ्नोलोग संस्था’ विश्व की तीसरे स्थान पर दिखाता है। जबकि हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है।”
इस विषय पर नागरी लिपि के साथ-साथ विमर्श होना चाहिए। आखिर जयंती प्रसाद नौटियाल का शोध, एथ्नोलोग द्वारा अब तक क्यों स्वीकार नहीं किया जा रहा है ? क्या सरकार को भी इस विषय में कुछ करना चाहिए ? नौटियाल के इस शोध से यदि ‘हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है’ का स्थान एथ्नोलोग द्वारा स्वीकार हो जाता है तो इससे नागरी लिपि को बहुत बल मिलेगा।
अंत में एक अंग्रेज ऋषि कवीन्द्र को रेखांकित करना चाहूंगा। वे इस समय शायद 77 – 78 वर्ष के हो चुके हैं। उन्होंने ‘ Bhagwat geeta comes alive’ पुस्तक भी लिखी है। उनके जन्म का नाम जैफरी आर्मस्ट्रांग है। ‘संस्कृत की वैश्विक विरासत’ आयोजन के तहत मेरा उनसे साक्षात्कार हुआ। वे स्वयं को भारतीय कहते हैं। वे ‘इंडिया’ व ‘इंडियन’ शब्द के उपयोग का घोर विरोध करते हैं। हालांकि वे ऑक्सफोर्ड में पढ़े हैं। उनका कहना है कि मैं भारतीय हूँ। मैं ऋषि हूंँ। ‘इंडिया’ व ‘इंडियन’ ये दोनों ही शब्द औपनिवेशिक हैं। हर भारतवंशी को स्वयं को भारतीय कहना चाहिए। हर भारतीय को संस्कृत सीखनी चाहिए। हर भारतीय को ‘भगवत गीता’ पढ़नी चाहिए।
उनके ही शब्दों में, भारत शब्द में ‘भा’ का अर्थ है ‘ज्ञान’ और ‘रत’ का अर्थ जो व्यक्ति ज्ञान के अर्जन में रत है। अर्थात जो ज्ञान के अर्जन की राह पर है, इस धरती पर ऐसा हर एक व्यक्ति भारतीय है।
ऋषि कवीन्द्र यह भी कहते हैं कि ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के बजाय ‘एटीमोलॉजी डिक्शनरी’ को उपयोग में लेना चाहिए। ताकि आपको यह पता लग सके की मूल शब्द का उद्गम कहांँ से है। अमुक शब्द का अर्थ क्या है ? उनका यह भी कहना है कि एटीमोलॉजी डिक्शनरी के उपयोग से आपको यह भी ज्ञात होगा की संस्कृत शब्दावली से, ग्रीक और लेटिन से कितना, कुछ, किस रूप में, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में लिया हुआ है।
मैकाले की चर्चा यहाँ फिर से करना बहुत आवश्यक है। मैकाले द्वारा, अपने पिता को लिखे एक पत्र को रेखांकित करना भी अपरिहार्य सा है। उन्हीं के शब्दों में “भारत में कॉन्वेन्ट स्कूलों की स्थापना की जाए। इन स्कूलों से निकले छात्र, देखने में तो भारतीय लगेंगे परंतु वे मानसिकता से अंग्रेज होंगे। ऐसे बच्चों को अपने देश के बारे में कुछ भी पता न होगा। ये अपनी संस्कृति से भी अनभिज्ञ होंगे। ये अपनी परम्पराओं से परिचित नहीं होंगे। ऐसी पीढ़ी अंग्रेजियत को जीवित रखेंगी।”
आज आप सोसियल मीडिया पर हिंदी भाषा को युवा पीढ़ी ही नहीं हम और आप जैसे और हमसे बुजुर्ग भी अपनी मातृभाषा को देवनागरी में न लिखकर, रोमन में लिख रहे हैं। इस प्रवाह को हमें मोड़ना होगा।
मेरा आप सभी मित्रों, आप सुधि विद्वानों से एक और निवेदन है कि जब-जब भी आप नागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर कहें तो साथ में दार्शनिक पक्ष की भी बात करें। ताकि पाठक व श्रोता नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष से परिचित हो सकें।
इन सब बातों तथ्यों को कहने का मेरा तात्पर्य है कि नागरी लिपि की क्षमता की दृष्टि से उन सभी बोलियां, जिनकी बोलियों की लिपि नहीं है, उन बोलियों के लिखने में नागरी लिपि को अपनाने के विमर्श को दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ाया जाए।
वैसे भी देवनागरी की क्षमता अपार है। इस विषय पर मीरा गौतम लिखती हैं “देवनागरी लिपि की ही अपार क्षमता है कि यह देशी और विदेशी शब्दों का तादात्म्यीकरण आसानी से कर लेती है।”
ज्ञानेन्द्र पाण्डेय के अनुसार “भाषा वस्तुत: भावाभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भाषा, भावाभिव्यक्ति का साधन, किसी लिपि से ही संपन्न होकर परिभाषित होती है।”
लॉर्ड मैकाले ने संस्कृत व खड़ी बोली की फसल, भारतीय संस्कृति की फसल को नष्ट करने का आह्वान किया था। यह बहुत पुरानी बात नहीं है। उसने गुरुकुल और संस्कृत पर टैक्स लगाकर, भारत की भाषा के स्वाभिमान, भारत की संस्कृति के स्वाभिमान, आम नागरिक के स्वाभिमान को तोड़ने की नींव डाली थी।
अब भविष्यवाणी हो रही है कि 2028 तक भारत आर्थिक शक्ति बनेगा। वर्तमान समय, भारत के आर्थिक जागरण का समय है। हम अमृत काल के दौर से गुजर रहे हैं। मैकाले की लहर को पलटने और पटक लगाने की तैयारी करने का सही समय है।
एक आन्दोलन की शुरुआत हो “देवनागरी में लिखो। देवनागरी बचाओ।” यह सही समय है अपनी विरासत को बचाने का।
आज भारतीय संस्कृति, भारतीय मातृभाषाओं और देव नागरी लिपि के स्वाभिमान को खड़ा करने का समय है। इसी राह नागरी लिपि के स्वाभिमान को खड़ा करने का अवसर है। व्यक्तिगत, सामाजिक और संस्थागत तौर पर, यह मेरी और आपकी यानि हम सबकी जिम्मेदारी है। नागरी लिपि के वर्ण साँस की डोरी से बंधे हैं। अतः नागरी लिपि की महत्ता और उसमें छिपे जीवन दर्शन को अब और अनदेखा न किया जाये।

रामा तक्षक

सादर,
रामा तक्षक
Watertuin 24,
3648GC, Wilnis, The Netherlands

On Sun, 8 Sept 2024, 21:10 Dr Rama Takshak, <drramatakshak@gmail.com> wrote:

11 सितंबर
विनोबा भावे की जयंती पर विशेष

देव नागरी लिपि : दार्शनिक पक्ष

विनोबा भावे को गांधीवादी कहा जाता है। वे विज्ञान और गणित में निपुण छात्र थे। लेकिन जीवन और जगत को जानने की प्यास में, वे हिमालय की राह चल पड़े थे। हिमालय की राह जब वे रेल में थे तो वे शिव का धाम, काशी में ही उतर गये। उन्हें पता चला कि महात्मा गाँधी काशी में हैं। काशी में उन्होंने गाँधीजी को खबरों में पढ़ा और पत्र लिख भेजा। इस पत्र का उत्तर मिला और वे गाँधी जी से मिलने वर्धा पहुँच गये। उनकी हिमालय की यात्रा की दिशा देश सेवा में बदल गई। कुछ ही समय बाद वे स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े।
मैंने विनोबा भावे को आनलाइन उपलब्ध चित्रों में देखा है। एक शांत, निर्भीकता और भोलापन उनके चेहरे का आकर्षण है। मुझे लगा कि इस व्यक्तित्व को पढ़ने के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए। विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर 1895 को हुआ था। उनका जन्म का नाम विनायक था। उसने माँ का सा स्वभाव पाया था। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार और भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने का श्रेय, बचपन में विनोबा के मन में, संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में, उनकी मां रुक्मिणी बाई को जाता है।
नागरी लिपि के महत्व को रेखांकित करते हुए आचार्य विनोबा भावे ने कहा था “हिंदुस्तान की एकता के लिए हिंदी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी देगी। इसलिए मैं चाहता हूं कि सभी भाषाएँ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियाँ चलें, लेकिन साथ साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये।”
विनोबा भावे “नागरी ही” नहीं “नागरी भी” चाहते थे। उन्हीं की पहल और प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई थी। नागरी लिपि परिषद, भारत की एक अकेली ऐसी संस्था है, जो नागरी लिपि के प्रचार प्रसार का अनवरत काम कर रही है।
पं जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में,1961 में, सम्पन्न मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में, प्रस्ताव रखा गया कि “भारत की सभी भाषाओं के लिए एक लिपि अपनाना वांछनीय हैं। इतना ही नहीं, यह सब भाषाओं को जोड़ने वाली एक मजबूत कड़ी का काम करेगी और देश के एकीकरण में सहायक होगी। यानि जोड़ लिपि का काम करेगी।
नागरी लिपि का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है कि देवनागरी लिपि में सभी गुण हैं। इन गुणों के ठोस आधार पर, यह लिपि सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ने में सक्षम है। इसी कारण इस लिपि को संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि कहा जाता है।
यहाँ मुझे एक इटालियन यात्री फिलिप्पो सास्सेती याद आते हैं। उनका उल्लेख करना भी जरूरी है। वे एक इटालियन नागरिक थे। वे पुर्तगाली कम्पनी में अधिकारी थे। वे पुर्तगाली कम्पनी के अधिकारी के रूप में, 1583 -1588 में कोचीन, भारत में रहे। उन्होंने, भारत में रहकर, संस्कृत भी सीखी। भारत में रहते हुए उन्होंने बहुत सारे पत्र इटालियन भाषा में लिखे हैं। उनके ये सभी उपलब्ध पत्र, भारतीय पत्र (Lettere Indiane) के शीर्षक के साथ 1942 में प्रकाशित हुए। इन पत्रों को एनाउदी प्रकाशन ने प्रकाशित किया था। मुझे यह पुस्तक सितम्बर 2022 में, इटली के पेरूजा शहर के साप्ताहिक बाजार में, दिखाई पड़ी तो मैंने इसे खरीद लिया। इन दिनों मैं इन इटालियन भाषा में लिखे पत्रों का हिंदी अनुवाद कर रहा हूँ।
इस पुस्तक के पृष्ठ 49 पर, पत्र क्रम 10 में, फिल्लिपो सास्सेति लिखते हैं “प्लिनी (इतालवी दार्शनिक) ने भी ब्राह्मणों के बारे में उल्लेख किया है। वह इन पूर्वी लोगों के व्यवहार के बारे में विस्तार से लिखता है। प्लिनी कहते हैं: ब्राह्मण, शब्दावली और ध्वनि के संकलन कर्ता हैं। वे अपनी भाषा, संस्कृत में, बहुत निपुण हैं।”
इसी पत्र में अगले पृष्ठ 50 पर वे लिखते हैं “इनकी भाषा स्वयं में बहुत ही रमणीय और सुन्दर ध्वनि देने वाली है। इस भाषा में 53 वर्ण हैं। जिनमें से सभी बोले और वैसे ही लिखे जाते हैं। इन सभी वर्णों का जन्म मुंँह और जीभ की विभिन्न, ध्वनियों और गतिविधियों से होता है। ये हमारी सभी अवधारणाओं को आसानी से अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं। ये लोग मानते हैं कि हमारी भाषा के वर्णों की संख्या, इनके वर्णों से आधी या उससे भी अधिक की कमी के कारण, हम अपनी ही भाषा में इनके जैसा उपयोग नहीं कर सकते।”
दूसरे शब्दों में यदि मैं यह कहूं तो अतिशयोक्ति न होगी कि मानव देह की, मानव मन की अभिव्यक्ति की सबसे सशक्त लिपि है नागरी। मानव द्वारा उच्चरित हर स्वर को शब्दों में, शक्ल देने की क्षमता है नागरी लिपि में।
इन अर्थों में देवनागरी लिपि में छिपे दर्शन को समझना जरूरी है। हम सब भलीभाँति जानते हैं कि वचन और अर्थ पूरक हैं। शब्द हो और उसका अर्थ न हो तो उस शब्द का कोई औचित्य नहीं है। अर्थ हो और उसे शब्दों में बताया न जा सके या अर्थ को शब्दों में परिभाषित न किया जा सके तो उसका भी कोई औचित्य नहीं है।
वाक और अर्थ का जोड़ अन्तर्दृष्टि के धरातल से है। वाक, अर्थ और अन्तर्दृष्टि के धरातल का पुल अनुभूति है। अनुभूत ही मानव के चिंतन की जड़ों को सींचता और पोषित करता है। यह सब आपकी इन्द्रियों और साँसों से जुड़ा है। हर साँस हमारे होने, हमारे अस्तित्व के मूल तक पहुँच बनाती है। मानवदेह के अस्तित्व का मूल है उसका अधिष्ठान चक्र। जिसे योग ने मूलाधार चक्र कहा है। मानव देह में, साँसों के बीच विद्यमान है एक सतत ऊर्जा। वही जीवन है। वही देह की कान्ति है।
संवाद के लिए बोलना आवश्यक है। लेखन के लिए भाषा आवश्यक है। भाषा के लिए शब्द आवश्यक हैं। शब्द लेखन के लिए वर्ण का होना जरूरी है। वर्ण के लिए ध्वनि आवश्यक है। देह से ध्वनि को प्रकट करने के लिए ऊर्जा आवश्यक है। ऊर्जा के लिए देह के तल आवश्यक हैं। विभिन्न ध्वनियाँ निकालने के लिए विभिन्न अंग और तल आवश्यक हैं। यानि ध्वनियों की तरंगों को विभिन्न धरातल चाहिए। ध्वनियों के प्रकटीकरण के लिए विभिन्न तल, विभिन्न दिशाएँ, विभिन्न शिराएँ और निकास द्वार चाहिए। इससे भी आगे ध्वनि की ऊर्जा को खुला आकाश भी चाहिए।
देह की ऊर्जा, शब्द और अर्थ से जुड़ी है। देह की ऊर्जा ही शब्दों को सम्प्रेषित करती है। ये शब्द वर्णों का गठजोड़ हैं। बोलने या लिखने के लिए वर्णों का उपयोग शब्दों में करना होता है। यह सब लिपि पर टिका है।
भारतीय ऋषियों ने और इसी श्रंखला में पाणिनि ने नागरी लिपि के माध्यम से देह की सर्वांगीण ऊर्जा को वर्णों में, अक्षर में बाँधने का या उसे परिभाषित करने का बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया है। नागरी लिपि बहुत गूढ़ शोध की उपज है। इस लिपि का सृजन मनुज देह में देवत्व का दर्शन है। यह लिपि, मनुज देह में, देवत्व को परिभाषित करती है। इसीलिए इसे देवनागरी नाम दिया गया है।
ध्वनि, पुकार या संवाद के समय, वर्णों और शब्द के कहन, गायन से उपजी देह ऊर्जा के उतार, चढ़ाव और ऊर्जा की यात्रा के साक्षी भाव का दर्शन, आम जीवन में एक ऐसा, एक अनदेखा अध्याय है। जिस पर सतत चर्चा होनी चाहिए। सजगता के इस महत्वपूर्ण सोपान पर संवाद होना चाहिए।
हम कोई भी भाषा बोलें, उसमें उपयुक्त हर स्वर या ध्वनि उच्चारण के समय, हर मानव, साक्षी भाव की दर्शन क्रिया से गुजरता है। उदाहरणार्थ संविधान की शपथ के समय, प्रार्थना के समय, अजान के समय, राष्ट्रीय गीत के समय, न्यायालय में शपथ दिलाकर साक्षी बनना, साक्षी भाव का सुंदर उदाहरण है। साक्षी भाव दर्शन मौन में तो सम्भव है ही।
कभी आपने अपनी भाषा के वर्णों और शब्दों का उच्चारण करते हुए, अपनी देह के विभिन्न तलों पर घटती, बढ़ती ऊर्जा की ओर ध्यान दिया है ? आपके उच्चारण के समय आपके होट, जीभ, नासिका, कण्ठ और उससे भी आगे, आपकी रीढ़ के तल तक चोट करती ऊर्जा पर कभी आपका ध्यान गया है ? सामान्यतः हम इस ओर ध्यान नहीं देते। शायद इसलिए कि ये सब विरासत में मिला है। विरासत में मिले को हम गम्भीरता से नहीं लेते हैं।
सुरेंद्र बंसल लिखते हैं “भाषा का प्रत्येक स्वर, भाषा का प्रत्येक शब्द और प्रत्येक वाक्य, हजारों करोड़ों मानवीय अनुभवों, परिवर्तनों और क्रियाओं के पदचिह्न हैं।” उन्हीं की बात को आगे बढ़ाते हुए मैं जोड़ना चाहूँगा कि इस सबकी संवाहक है लिपि।
ध्वनियाँ हमारी देह से निकलती हैं। ये ध्वनियाँ हमारे अस्तित्व का जोड़ हैं। सामान्यतः हम बाहर के जगत को देखने में व्यस्त रहते हैं। ध्वनियाँ और संवाद हमारे आंतरिक जीवन का छोर हैं। हमें अपने अंतर के जगत को प्राथमिकता से देखना होगा। यही दर्शन है।
हम सामान्यतः स्वयं की ऊर्जा पर प्रयोग और शोध की बातों से भी बचते हैं। जबकि शोध की राह, हमारे जीवन की सर्व सम्पन्न विरासत है। शोध की राह ही दर्शन है। यही जीवन और जगत का सत्य उद्घाटित करता है।
हमारी अपनी देह के तल पर तैरती, घटती और बढ़ती ऊर्जा पर ध्यान, जीवन का सबसे सहज और गहन शोध है। इसके अतिरिक्त जीवन से जुड़ी बात चाहे घरेलू हो, शैक्षिक हो, वैदिक साहित्य हो, दार्शनिक हो, लिपिगत हो, चिकित्सा शास्त्र की हो, ज्योतिष की हो। तथ्यों के साथ शोध, जीवन और जगत को नई दिशा देता है। हमें जीवन की बारीकियों की तह का पता देता है।
मेरे देखे, नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष की बात के साथ साथ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ा बहुत जान लेना बहुत जरुरी है।
भारत के तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय बहुत ही समृद्ध और महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थान थे। सुना है कि तक्षशिला विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था। इसकी स्थापना सातवीं ईसा पूर्व में की गई थी। विश्व का दूसरा विश्विद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय रहा है। नालंदा, वर्तमान बिहार राज्य के नालंदा जिला में स्थित है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में तो पूरे विश्व के 10,500 से भी अधिक छात्र अध्ययन किया करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय, यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र, सर्वोपरि केन्द्र था।
आँकड़े यह भी बताते हैं कि 1850 तक, भारत में लगभग साढ़े सात लाख गाँव थे। साथ ही इस समय, सात लाख तीस हजार गुरुकुल भी थे। यानि औसतन लगभग हर गाँव में एक गुरुकुल था। इन गुरुकुलों में 18 विषय पढ़ाये जाते थे। ये सब तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि भारत में उस समय एक बहुत ही व्यवस्थित और विकसित शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुलों में शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी। इन गुरुकुलों को राजा महाराजाओं का प्रश्रय नहीं था।
उस समय, उत्तर भारत में 97 प्रतिशत और दक्षिण भारत में पूरी सौ प्रतिशत साक्षरता थी। साक्षरता के ये तथ्य दो अंग्रेज अधिकारियों, जी. डब्ल्यू. लूथर के उत्तरी भारत और थोमस मुनरो के दक्षिण भारत के साक्षरता सर्वे पर आधारित हैं।
भारत के औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का एक ही उद्देश्य था। भारत के इस शैक्षणिक ताने बाने को तहस नहस कर, इस देश को गुलामी की जंजीरों में कस देना।
भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक, मैकाले ने तो स्पष्टतः कहा था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को नष्ट करके ही इस देश को सदा सदा के लिए गुलामी की बेड़ियों में बांधा जा सकता है। उनका एक ही मत था कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सफाया कर, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का ढाँचा खड़ा किया जाये ताकि अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र, दिखने में भारतीय लगेंगे लेकिन वे अंग्रेजी व अंग्रेजों का हित साधेंगे।
मैकाले का कहना था कि जैसे फसल उगाने के पहले खेत को पूरी तरह जोत दिया जाता है उसी तरह भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को भी जोतना होगा। साथ ही अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था भी खड़ी करनी होगी। अपने इसी कथन को सिद्ध करने के लिए मैकाले ने अंग्रेजी सत्ता से पहले गुरुकुल व्यवस्था और बाद में संस्कृत को गैरकानूनी घोषित करवाया। इस तरह गुरुकुलों को समाज से मिलने वाला आर्थिक सहयोग, कानून की खिलाफत हो गया। कानून की खिलाफत करने वालों को जेल की सजा मिलने लगी। कहते हैं कि अंग्रेजों ने गाँव बस्तियों में जाकर, गुरुकुलों को जला डाला।
मैकाले की योजना को क्रियान्वित करने के लिए अंग्रेजों ने सबसे पहला कान्वेन्ट स्कूल कलकत्ता में खोला था। इसके बाद अंग्रेजों ने कलकत्ता, मुम्बई व मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की। ये तीनों ही विश्वविद्यालय आज भी मौजूद हैं।
ये सब बातें यहाँ साझा करना इसलिए आवश्यक है कि अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत को मटियामेट करने में कमी नहीं छोड़ी। इस तथ्य से हर भारतीय को परिचित होना चाहिए ताकि वह अपनी शैक्षणिक और सांस्कृतिक विरासत के विषय में सजग हो सके।
दूसरी बात यह कि भारतीय शिक्षा की मूलाधार लिपि, नागरी लिपि की महत्ता व उसके दार्शनिक पक्ष के साथ जीवन मूल्यों को रेखांकित करना है।
नागरी लिपि की उपेक्षा के कारण भी हैं। इस लिपि का एक महत्वपूर्ण कारक भी है। यह कारक है नागरी लिपि का दार्शनिक पक्ष। जैसा कि मैंने पहले लिखा। हमारा ध्यान नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष पर नहीं गया है। इस बारे में हमें, कहीं पढ़ाया भी नहीं गया है। यह व्यवस्था की एक बहुत बड़ी खामी रही है। यानी नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष को सामने न लाना अधूरापन है। यह भारतीय दर्शन को जानने एवं समझने की राह में बहुत बड़ी चूक रही है। नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष पर शोध होना भी बहुत जरूरी है। इस शोध को मातृभाषाओं और बोलियों के क्षेत्र तक ले जाना हमारा काम है। इससे मातृभाषाएँ और बोलियाँ भी बचेगी। साथ ही लिपि भी बचेगी और हमारी संस्कृति भी संरक्षित होगी।
नागरी लिपि देह के दर्शन की उपज है। इन अर्थों में नागरी जीवन दर्शन से परिपूर्ण है। नागरी लिपि के वर्ण, एक-एक वर्ण मंत्र हैं। मंत्र होने का अर्थ, अस्तित्व की ऊर्जा की परिपूर्णता, अस्तित्व से समग्र सामंजस्यता से है। इसीलिए नागरी लिपि के वर्णों को अक्षर कहा गया है। अक्षर यानी जिनका क्षर न हो।
एक बात चार्वाक दर्शन पर भी। चार्वाक दर्शन का मत था:
“यावत जीवेत सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतम पीबेत।” अर्थात जब तक जीओ, सुख से जीओ। कर्ज लेकर भी घी पीओ।
चार्वाक के इस मत के प्रतिपादन ने भारतीय ऋषियों को झकझोर दिया था। चार्वाक के बाद, ऋषियों के जीवन के प्रति गहन ध्यान और शोध स्वरूप, भारतीय दर्शन ने जीवन की नई ऊँचाइयों को छूआ। इसी के फलस्वरूप आप नागरी लिपि में, जीवन की नई ऊँचाइयों को छूने वाले, दार्शनिक शब्दों की भरमार पाएंगे। ये शब्द दूसरी भाषाओं में नहीं हैं। कम से कम अंग्रेजी भाषा में तो नहीं हैं। वर्तमान में, इनमें से बहुत से शब्दों ने पाश्चात्य जगत में भी अपनी ठोस पहचान बना ली है। मैं यहां कुछ शब्दों का उल्लेख करता हूं :
मंत्र, सूत्र, योग, शांति, कर्म, अवतार, सम्यक, ब्रह्म, जीवात्मा, प्रकृति, स्थितप्रज्ञ, स्वीकार भाव, साक्षी भाव, सत् चित्त आनंद, ब्रह्म मुहूर्त, सत्यम शिवम सुंदरम, निर्वाण, मंगल, भक्ति, श्रद्धा और शुभ आदि। ऋषियों ने इन शब्दों और इन शब्दों में उपयुक्त वर्णों के माध्यम से जीवन के दर्शन को खड़ा किया।
नागरी लिपि के इन दार्शनिक शब्दों के समानार्थी शब्द रोमन लिपि में नहीं हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है।रोमन लिपि की क्षमता नागरी लिपि की अपेक्षा पचास प्रतिशत कम है। उसमें केवल छब्बीस वर्ण हैं।
एक प्रश्न हमारी सांस्कृतिक जड़ों से भी जुड़ा है। यह कि हम मंत्र बोलने लिए, हम विशेष अवसरों पर, मंत्र उच्चारण के लिए पंडित के पीछे क्यों भागते हैं? क्या आपने कभी इस विषय में सोचा है ?
हम पंडित के पीछे इसलिए भागते हैं कि हम मंत्र उच्चारण से देह के दर्पण में, स्वयं को देख सकें। मंत्रोच्चार कर, अपने आप में, झाँक सकें। चेतना की यह पकड़ जन-जन में देखने को मिल जाएगी। नागरी के वर्णों में चेतन के शीर्ष तक पहुंचाने की क्षमता है।
हमारे पाणिनि जैसे महर्षि और ऋषि नागरी लिपि के वर्णों के जरिए, साधना की राह उतरकर, चेतना के तार तार का पता पा सके। वे सहज ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘ओम शांति’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ कह सके।
देवनागरी लिपि के वर्ण, मानवीय देह की ऊर्जा की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। देह ऊर्जा को यदि हम नहीं समझ सकते तो हम जीवन और जगत को नहीं समझ पायेंगे। देवनागरी लिपि के वर्ण सजगता का पायदान हैं। देवनागरी लिपि के वर्ण आत्मिक विकास की सीढ़ी हैं।
“मैं कौन हूँ?” यह वाक्य एक महामंत्र है। यदि आप इस वाक्य का लगातार और बार बार उच्चारण के समय, साक्षी भाव से देखेंगे तो एक स्थिति आयेगी। जिसमें आप कह सकेंगे “अहम् ब्रह्मास्मि।”
“Who am I” का उच्चारण भी अवश्य करके देखें और “मैं कौन हूँ” का उच्चारण भी करके देखें। ऐसा करने भर से आपको अपनी देह की ऊर्जा द्वारा अभिव्यक्त वर्णों की क्षमता समझ में आ जायेगी।
अक्षर ब्रह्म है। यही कारण है कि दुनिया भारतीय दर्शन का लोहा मानती है।
जिस लिपि में इतनी क्षमता हो और उसका ह्रास हो रहा हो, लिपि का उपयोग ना हो रहा हो। यह कमी हम में है। यह कमी व्यवस्थागत है। रोमन लिपि के 26 वर्ण यानी नागरी लिपि के पचास प्रतिशत वर्ण, नागरी लिपि पर सूरज ग्रहण लगा रहे हैं। यह अनदेखी हम कब तक सहेंगे ? केवल इसलिए की रोमन लिपि में तकनीक उपलब्ध है। रोमन लिपि में पुस्तकें उपलब्ध हैं। प्रश्न यह है कि आखिर इस तकनीक और पुस्तक सामग्री को अंग्रेजी भाषा के समानांतर नागरी में क्यों नहीं खड़ा किया गया ?
मैं यहां एक नोबेल पुरस्कार विजेता, अंग्रेज साहित्यकार, टी. एस. इलियट6 का नाम लेना चाहूंगा। जिन्होंने अपनी कविता The wasteland का अंत, शांति:, शांति:, शांति: शब्द के साथ से किया है। उन्होंने एक जगह भारतीय व पाश्चात्य दार्शनिकों की तुलना करते हुए कहा है कि पाश्चात्य दार्शनिक, भारतीय दार्शनिकों के समक्ष प्राथमिक पाठशाला के छात्र हैं।
एक अन्य उदाहरण है पॉप गायिका मैडोना। इन्होंने बीबीसी के माध्यम से बनारस के विद्वान वागीश शास्त्री से संस्कृत सीखी है। इस महिला के पास अपार धन है और अकूत लोकप्रियता भी। फिर क्या कारण है कि इस बहुत ही महान गायिका ने संस्कृत सीखने की ठानी ? आप इस प्रेरणा के पीछे क्या देखते या सोचते हैं ? क्या भारतीय दर्शन के पीछे नागरी लिपि कहीं लुप्त हो गई है ? हमारा अपना सामर्थ्य, नागरिक लिपि की इस क्षमता को देखने में सक्षम क्यों नहीं है ?
एकाहर्ट टोले वर्तमान में भारतीय दार्शनिक पक्ष के सशक्त समर्थक हैं। 2008 में, नीदरलैंड के शहर रोटरडम में, उनसे संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। वे हर समय अपने वक्तव्य में मंत्रों का उच्चारण करते हैं। भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। भगवत गीता को हाथ में लिए पढ़कर, भारतीय संस्कृति से जीवन जीने की सीख जानने और समझने की कहते हैं।
मातृभाषा की बात करते हुए हम प्रायः नागरी लिपि की वैज्ञानिकता की बात करते हैं। हमें नागरी के दर्शन पक्ष को भी सामने लाना होगा। केवल नागरी लिपि की वैज्ञानिकता की बात करना, अधूरी बात करने जैसा है। नागरी लिपि का अधूरा पक्ष प्रस्तुत करने जैसा है।
आइए दो शब्दों ‘बैठ’ व ‘नहीं’ और इन शब्दों में उपयुक्त वर्णों के उच्चारण और इनके उच्चारण के समय, देह में उपजी ऊर्जा और उस ऊर्जा की दैहिक यात्रा की बात करते हैं। ‘बैठ’ शब्द का जब जब भी आप उच्चारण करेंगे तो ‘बै’ वर्ण के उच्चारण के समय आपके होटों और मुख से उपजी ऊर्जा आपके कण्ठ के रास्ते, आपके सहस्रार की ओर गमन करती है। ‘बैठ’ शब्द के दूसरे वर्ण ‘ठ’ का उच्चारण करते समय उपजी ऊर्जा आपकी रीढ़ के तल तक चोट करती हुई, आपके धड़ में फैल जाती है। ‘ठ’ वर्ण घड़े का सा आकार ले लेती है।
मैं दूसरे शब्द ‘नहीं’ के उच्चारण की बात करूँ, इससे पहले एक आग्रह भी है कि आप अंग्रेजी के समानार्थी शब्द ‘sit’ व ‘no’ शब्दों का उच्चारण कर, अपनी देह में ऊर्जा की यात्रा पर ध्यान दें और तुलना भी अवश्य करें।
जब आप ‘नहीं’ ‘न’ और ‘हीं’ का उच्चारण करते हैं तो ‘न’ का उच्चारण, आपकी नासिका से उपजी ऊर्जा की उठान आपके सहस्त्रार तक जाती है। ‘न’ वर्ण के बाद ‘हीं’ का उच्चारण ‘न’ के उच्चारण से ऊर्जा की सहस्त्रार तक बनी पहुंच को रीढ़ के तल तक ले आती है। आपकी देह में, ‘नहीं’ का उच्चारण पूरा होते होते, ऊर्जा सहस्त्रार से लेकर रीढ़ के तल में, कील सी खड़ी हो जाती है।
इन दो शब्दों के माध्यम से मेरे कहने का आशय है कि नागरी लिपि, जीवन से जुड़ा बहुत गहन शोध है। आप इस पर गौर करें। ये वर्णों और शब्दों के उच्चारण के छोटे छोटे प्रयास, आपको अपनी देह की ऊर्जा के प्रवाह और ऊर्जा की पड़ती चोट, तल तक का पता देंगे। आपकी अपनी देह और अस्तित्व के प्रति आपकी सजगता को उत्तरोत्तर बढ़ायेंगे।
शायद आपने जे पी नौटियाल का नाम सुना होगा। वे, ‘हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है’ इस तथ्य को स्थापित करने के लिए, पिछले कई दशकों से प्रयासरत हैं। नौटियाल के मतानुसार “हिंदी भाषा को ‘एथ्नोलोग संस्था’ विश्व की तीसरे स्थान पर दिखाता है। जबकि हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है।”
इस विषय पर नागरी लिपि के साथ-साथ विमर्श होना चाहिए। आखिर जयंती प्रसाद नौटियाल का शोध, एथ्नोलोग द्वारा अब तक क्यों स्वीकार नहीं किया जा रहा है ? क्या सरकार को भी इस विषय में कुछ करना चाहिए ? नौटियाल के इस शोध से यदि ‘हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है’ का स्थान एथ्नोलोग द्वारा स्वीकार हो जाता है तो इससे नागरी लिपि को बहुत बल मिलेगा।
अंत में एक अंग्रेज ऋषि कवीन्द्र को रेखांकित करना चाहूंगा। वे इस समय शायद 77 – 78 वर्ष के हो चुके हैं। उन्होंने ‘ Bhagwat geeta comes alive’ पुस्तक भी लिखी है। उनके जन्म का नाम जैफरी आर्मस्ट्रांग है। ‘संस्कृत की वैश्विक विरासत’ आयोजन के तहत मेरा उनसे साक्षात्कार हुआ। वे स्वयं को भारतीय कहते हैं। वे ‘इंडिया’ व ‘इंडियन’ शब्द के उपयोग का घोर विरोध करते हैं। हालांकि वे ऑक्सफोर्ड में पढ़े हैं। उनका कहना है कि मैं भारतीय हूँ। मैं ऋषि हूंँ। ‘इंडिया’ व ‘इंडियन’ ये दोनों ही शब्द औपनिवेशिक हैं। हर भारतवंशी को स्वयं को भारतीय कहना चाहिए। हर भारतीय को संस्कृत सीखनी चाहिए। हर भारतीय को ‘भगवत गीता’ पढ़नी चाहिए।
उनके ही शब्दों में, भारत शब्द में ‘भा’ का अर्थ है ‘ज्ञान’ और ‘रत’ का अर्थ जो व्यक्ति ज्ञान के अर्जन में रत है। अर्थात जो ज्ञान के अर्जन की राह पर है, इस धरती पर ऐसा हर एक व्यक्ति भारतीय है।
ऋषि कवीन्द्र यह भी कहते हैं कि ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के बजाय ‘एटीमोलॉजी डिक्शनरी’ को उपयोग में लेना चाहिए। ताकि आपको यह पता लग सके की मूल शब्द का उद्गम कहांँ से है। अमुक शब्द का अर्थ क्या है ? उनका यह भी कहना है कि एटीमोलॉजी डिक्शनरी के उपयोग से आपको यह भी ज्ञात होगा की संस्कृत शब्दावली से, ग्रीक और लेटिन से कितना, कुछ, किस रूप में, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में लिया हुआ है।
मैकाले की चर्चा यहाँ फिर से करना बहुत आवश्यक है। मैकाले द्वारा, अपने पिता को लिखे एक पत्र को रेखांकित करना भी अपरिहार्य सा है। उन्हीं के शब्दों में “भारत में कॉन्वेन्ट स्कूलों की स्थापना की जाए। इन स्कूलों से निकले छात्र, देखने में तो भारतीय लगेंगे परंतु वे मानसिकता से अंग्रेज होंगे। ऐसे बच्चों को अपने देश के बारे में कुछ भी पता न होगा। ये अपनी संस्कृति से भी अनभिज्ञ होंगे। ये अपनी परम्पराओं से परिचित नहीं होंगे। ऐसी पीढ़ी अंग्रेजियत को जीवित रखेंगी।”
आज आप सोसियल मीडिया पर हिंदी भाषा को युवा पीढ़ी ही नहीं हम और आप जैसे और हमसे बुजुर्ग भी अपनी मातृभाषा को देवनागरी में न लिखकर, रोमन में लिख रहे हैं। इस प्रवाह को हमें मोड़ना होगा।
मेरा आप सभी मित्रों, आप सुधि विद्वानों से एक और निवेदन है कि जब-जब भी आप नागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर कहें तो साथ में दार्शनिक पक्ष की भी बात करें। ताकि पाठक व श्रोता नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष से परिचित हो सकें।
इन सब बातों तथ्यों को कहने का मेरा तात्पर्य है कि नागरी लिपि की क्षमता की दृष्टि से उन सभी बोलियां, जिनकी बोलियों की लिपि नहीं है, उन बोलियों के लिखने में नागरी लिपि को अपनाने के विमर्श को दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ाया जाए।
वैसे भी देवनागरी की क्षमता अपार है। इस विषय पर मीरा गौतम लिखती हैं “देवनागरी लिपि की ही अपार क्षमता है कि यह देशी और विदेशी शब्दों का तादात्म्यीकरण आसानी से कर लेती है।”
ज्ञानेन्द्र पाण्डेय के अनुसार “भाषा वस्तुत: भावाभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भाषा, भावाभिव्यक्ति का साधन, किसी लिपि से ही संपन्न होकर परिभाषित होती है।”
लॉर्ड मैकाले ने संस्कृत व खड़ी बोली की फसल, भारतीय संस्कृति की फसल को नष्ट करने का आह्वान किया था। यह बहुत पुरानी बात नहीं है। उसने गुरुकुल और संस्कृत पर टैक्स लगाकर, भारत की भाषा के स्वाभिमान, भारत की संस्कृति के स्वाभिमान, आम नागरिक के स्वाभिमान को तोड़ने की नींव डाली थी।
अब भविष्यवाणी हो रही है कि 2028 तक भारत आर्थिक शक्ति बनेगा। वर्तमान समय, भारत के आर्थिक जागरण का समय है। हम अमृत काल के दौर से गुजर रहे हैं। मैकाले की लहर को पलटने और पटक लगाने की तैयारी करने का सही समय है।
एक आन्दोलन की शुरुआत हो “देवनागरी में लिखो। देवनागरी बचाओ।” यह सही समय है अपनी विरासत को बचाने का।
आज भारतीय संस्कृति, भारतीय मातृभाषाओं और देव नागरी लिपि के स्वाभिमान को खड़ा करने का समय है। इसी राह नागरी लिपि के स्वाभिमान को खड़ा करने का अवसर है। व्यक्तिगत, सामाजिक और संस्थागत तौर पर, यह मेरी और आपकी यानि हम सबकी जिम्मेदारी है। नागरी लिपि के वर्ण साँस की डोरी से बंधे हैं। अतः नागरी लिपि की महत्ता और उसमें छिपे जीवन दर्शन को अब और अनदेखा न किया जाये।

रामा तक्षक

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