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प्रेमचंद के विचारों को अपने जीवन चरित्र में उतारना ही सच्ची श्रद्धांजलि –डा.बिन्देश्वर

प्रेमचंद के विचारों को अपने जीवन चरित्र में
उतारना ही सच्ची श्रद्धांजलि –डा.बिन्देश्वर

– डा.बिन्देश्वर प्रसाद गुप्ता

आज प्रेमचंद जयंती के अवसर पर कई जगह सरकारी संस्थाओं, गैर सरकारी संस्थाओं, साहित्यिक संस्थाओं , साहित्यिक व्यक्तियों के द्वारा प्रेमचंद की जयंती मनायी जा रही है।
हर वर्ष मनायी जाती है और हर वर्ष मनायी जायेगी , इसमें दो मत नहीं । कई साहित्यिक संस्थाएं प्रेमचंद की जन्मतिथि या पुण्यतिथि के अवसर पर लघुकथा पाठ , कहानी पाठ या प्रतियोगिताएं करा रही है ।
किंतु , हमें यह कहना है कि क्या ऐसा नहीं लगता कि हम सभी उनकी जन्मतिथि मना कर ही अपनी -अपनी राजनीति और साहित्यिकता की रोटी सेंकने का प्रयास कर रहे हैं ? हम सभी को अपने दिल से पूछना चाहिए कि क्या हम प्रेमचंद जीके बताये गये आदर्शों , विचारों, मानवीय सद्भावनाओं, नैतिक मूल्यों पर चल रहे हैं या चलने का ढोंग कर रहे हैं ?
इसका जवाब हमारी- आपकी अंतरात्मा देगी जो कभी झूठ, असत्य नहीं बोलती, …..पक्षपात , स्वार्थ का सहारा नहीं लेती , किसी दल ,संवर्ग , जाति- पाँति, वर्ण व्यवस्था, समुदाय के अन्तर्गत
परिवर्तित नहीं हो जाती ।…..
हम सभी क्या यह नहीं पाते कि अपनी सुविधानुसार हम स्वयं एक नई ऐसी परिभाषा गढ़ लेते हैं, जो प्रेमचंद के बताये गए रास्तों पर चलते हुए दिखाई पड़ जाते हैं , किंतु दरअसल नहीं अपनाते ।
आखिर क्यों ? इसीलिए कि , आज इस आधुनिक भौतिकवादी उपभोक्तावादी संस्कृति , अर्थप्रधान मशीनी युग में हम इतने अपने- आप में स्वार्थपूर्ण मानसिकता के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। बस ! थोड़े से में ही काम चल जाता है ,
” वसुधैव कुटुंबकम ” की भावना तो धरी की धरी रह गई है। अब वह अपनायी ही कहाँ जाती है ? अपने चाहनेवाले लोगों के इर्द-गिर्द ही , ” तुम हमें पूजो, हम तुम्हे पूजेंगे , तुम मुझे मान सम्मान दो , हम तुम्हें मान सम्मान देंगे । तुम हमें पुरस्कार दो , हम तुम्हें पुरस्कार देंगे ।…..” और इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता नहीं , इससे अलग और इससे विस्तृत दायरे , फलक में जाने की जरूरत नहीं । …. बस इतने से ही काम चल जाता है, इतने से ही प्रसिद्धि मिल जाती है, तो प्रेमचंद के विशद, वृहद और विस्तार में मूलभूत सिद्धांतों की गहराई में जाकर अपनाये जाने से क्या फायदा ? ….बस , मैं खुश , तुम खुश , तो सब खुश ।
…..और यही तो आज हो रहा है । कहाँ गए प्रेमचंद और प्रेमचंद के सिद्धांत और विचार जिन मानव मूल्यों को प्रतिस्थापित कर प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से अपनी पूरी जिंदगी सर्वस्व , देश समाज, परिवार के लिए होम कर दिया था , सुखों को त्याग कर विपन्नताओं, विपदाओं को सहर्ष स्वीकार किया था , वे आज भी हमारे बीच गायब है ।
….इसके विपरीत, भ्रष्टाचार ,नैतिक अवमूल्यन , वैयक्तिक दुराचार , स्वार्थपरता , असभ्यता , असहिष्णुता, निर्दयता , अशिष्टता कायम , बरकरार ही नहीं , बल्कि उनके समय की अपेक्षा और अधिक
पुष्पित ,पल्लवित होकर विशाल बरगद का रूप धारण कर लिया है ।….
आज भी हमारी आँखों के सामने सैकड़ों ऐसी घटनायें , परिदृश्य चलचित्र की भाँति गुजरती चली जाती हैं , जिसे हमारी आत्मा नहीं स्वीकारती , किन्तु हम कुछ कह भी नहीं पाते, …मूक , मौन रहकर अपनी संवेदनहीनता का परिचय देते हैं, संवेदनशील होते हुये भी अपनी कायरता, अनभिज्ञता , बेबसी, लाचारगी, अपौरूषता जाहिर करते हैं।….
” हमारे सामने किसी की इज्जत की नीलामी होती जा रही होती है, गरीब किसानों को कर्ज नहीं चुकाने के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ रहा है और बड़े-बड़े उद्योगपतियों, पूँजीपतियों के लाखों करोड़ रूपये की एक मुश्त राशि सरकार और बैंकों के द्वारा माफ किये जा रहे हैं , सरकार के गरीब जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों सांसद और विधायकों ऐश – मौज की जिंदगी जी रहे हैं , कुछ महीने भी सांसद और विधायक रहने की पश्चात भी जीवन भर पेंशन की सुविधा प्राप्त कर रहे हैं , काफी अधिक वेतन के बावजूद नि:शुल्क गाड़ी,पेट्रोल, रेल , विमान, आवास , सुरक्षा की सुविधा दी जा रही है , जिसमें लाखों करोड़ रुपए की राशि व्यय की जाती है, किन्तु महँगाई और बेरोजगारी आसमान को छू रही है “- इनसे वे सभी मंत्री, सांसद , विधायक बेखब़र होकर दिन-रात जनता को उल्लू बना रहे हैं , ” देश विकास कर रहा है ” के झूठे नारों से लोगों को गुमराह कर रहे हैं । आमजनों के बीच महँगाई की खाई चौड़ी होती जा रही हैं । जन- सेवा की भावना कोसों दूर होती चली जा रही है ,
… और इसमें वोट बैंक के कारण मंत्रियों – नेताओं ,सांसदों तथा विधायकों का मौन धारण करना हास्यास्पद लगता है।
साहित्यिक संस्थाओं तथा साहित्यिक व्यक्तियों में संवेदनहीनता व संवादहीनता , सामाजिक व पारिवारिक विसंगतियाँ आदि व्यक्तियों में कई गुना कुंठा व अवसाद ( डिप्रेशन) को बढायी है। इसका मुख्य कारण है कि हम लोगों ने प्रेमचंद के विचारों को अपनाने की कसम तो खाई है , किंतु अपने जीवन चरित्र में नहीं उतारा है । उनके नाम पर सभा, संगोष्ठी, सम्मेलन आदि तो आयोजित कर खानापूर्ति तो कर लेते हैं, किन्तु हम संवेदनाशून्य होकर अपने दैनिक दिनचर्या में नहीं शामिल करते हैं। प्रेमचंद के द्वारा प्रतिपादित किये गये सत्य , यथार्थ, देशप्रेम, संस्कृति नैतिक मूल्यों , को नहीं स्वीकारते । इससे बड़ा प्रेमचंद का अपमान और क्या हो सकता है ?
अतः , आज के परिवेश में प्रेमचंद की प्रासंगिकता अब और बढ़ गई है। अब वह समय आ गया है कि प्रेमचंद के साहित्य के अवदानों व उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को व्याख्यायित करते हुये नैतिकता , संवेदना , करूणा व मूल्यों के प्रति लोगों के बीच चेतना जगायी जाय , जागरूकता लायी जाय ताकि एक स्वस्थ देश, समाज , परिवार की आधारभूत संरचना की जा सके। यही प्रेमचंद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
– डा.बिन्देश्वर प्रसाद गुप्ता
पटना (बिहार )

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