बूँद-बूँद को तरसी धरा, जीवन संकट आया
बूँद-बूँद को तरसी धरा, जीवन संकट आया
प्यास थी आसमान की, धरती को तरसाया,
बूँद-बूँद को तरसी धरा, जीवन संकट आया।
प्यास थी नदी की, सूख गए किनारे,
जल के बिना सिसके, वन, पंछी और सारे।
प्यास थी मानव की, लालच में वो खोया,
सागर सा जल पाया, फिर भी कुछ न बोया।
प्यास थी जानवरों की, सूखे तालाब छूटे,
भूखे और प्यासी आँखें, घास के जंगल रूठे।
प्यास थी परिंदों की, आसमान से पुकार,
कहाँ छुपा वो पानी, कहाँ बुझे अंगार।
प्यास थी मासूम की, जिसने माँ को रोते देखा,
सूखी छाती से दूध माँगा, खुद को मौन में देखा।
प्यास थी वृद्धों की, बुढ़ापे में सहारा मिले,
पर बेटों की दौलत प्यास, रिश्तों को निगल चले।
प्यास थी समुद्र की, बादलों को बुलाए,
पर हवा के खेल में, वो खुद जलाए।
प्यास थी मिट्टी की, बारिश उसे सजीव करे,
पर इंसानी हस्तक्षेप, उसे बेबस करे।
प्यास थी हवाओं की, सुगंध से भर जाएँ,
लेकिन धुएँ के जाल में, खुद को न रोक पाएँ।
यह प्यास का खेल, हर प्राणी को घेरे,
जल की खोज में, समय के साथ फेरे।
धरती का संतुलन डगमग, प्यास ने बिगाड़ा,
प्रकृति का सौंदर्य, मानव ने उजाड़ा।
क्या यही अंत होगा, प्यास का ये नाटक,
या हम देंगे जीवन को, फिर से सच्चा आयाम?
प्यास बुझानी होगी, सबको समझना होगा,
प्रकृति को अपनाकर, जीवन रचना होगा।
जल ही जीवन है, यह सत्य हमको जानना,
प्यास में डूबे प्राणियों को, फिर से पहचानना।
कभी नदी से सीखो, बहने की आदत,
कभी पंछी से समझो, खुले नभ की चाहत।
प्यास दर्द भरी सही, पर सबक भी सिखाती,
जीवन की इस धारा में, नई राह दिखाती।
डॉ रमेन गोस्वामी