बटवृक्ष
बटवृक्ष
कोमल काली चिकनी मिट्टी
और नहि रक्षित उद्यानों में।
फिर भी देखा उगते तुमको
पत्थर और चट्टानों में।।
स्रोत नहि पानी का कोई
नहि खाद की कोइ आस कभी।
नदी नहर नाले नहि कोइ
नहि माली कोइ पास कभी।
लेती है परीक्षा तेज धूप
नहि दया तनिक आसमानों में।
फिर भी देखा पलते तुमको
पत्थर और चट्टानों मे।।
कोमल बीज उड़े हवा आंधी में
कभी इधर गिरे कभी उधर पड़े।
वही बीज बन बटवृक्ष आज
तूफ़ान के सम्मुख आन खड़े।
इतना संयम और धैर्य छिपाकर
तुम रखते अधर मुस्कानों में।
तुम बढ़ते रहे बस इसी वजह से
पत्थर और चट्टानों मे।।
तुम सूक्ष्म बीज से शून्य हुए
और शून्य से फिर स्थूल बनें।
साख-प्रसाख के रूप प्रगट
पुनः साख तने से मूल बने ।
नित साख मूल का परिवर्धन
दृढ़ हो संकल्प अनुष्ठानों में।
इस तरह से देखा भिड़ते तुमको
पत्थर और चट्टानों मे।।
हे बटवृक्ष तेरे पद अंगद से
रहे अटल तेरा विश्वास सदा ।
जो टस से मस न हुआ कभी
ऐसा महान इतिहास सदा।
सब कुछ संभव है इसी जगत में
दृढ़ संकल्प हो यदि इन्सानों में।
जैसे देखा गड़ते तुमको
पत्थर और चट्टानों मे।।
इसी कारण तेरी छाँव तले
सब कठिन साधना कर पाते ।
होते सफल ऋषियों के तपबल
तेरी शरण जो चले आते।
तेरी सुकीर्ति शास्त्रों में वर्णित
परम पावन स्थानों में।।
सबने देखा रमते तुमको
पत्थर और चट्टानों मे।।
संतोष कुमार मिश्र ‘असाधु ‘