विजयदशमी पर्व
विजयदशमी पर्व
विजयदशमी का पर्व है आज भी मनता है
पर राम कौन बनता है
हर मनुष्य स्वार्थ मे बहका है
निस्वार्थ सेवा कौन करता है राम कौन बनता है
ना त्याग है ना रिश्ते है
ना मित्रता है ना सेवा है कौन किसके लिये मरता है राम कौन बनता है
रावण को हम जलाते है बुराइयाँ अपने अन्दर पनपातें है
नारी का आदर आज भी कहाँ पाते है
सीता का रूप भी कौन अपनाता है
श्रंगार नारी का कहाँ रमता है
राम कौन बनता है
हर त्यौहार का अपना एक मान्यता है
मनु सभ्यता का एक नैतिकता है
वचन आज किसका निभता है
कौन इंसानियत के तकाजे पर इन्सान बनता है
दोस्तों राम कौन बनता है
छलावे की दुनिया है रौंदने को हर इन्सान मचलता है एक की छाती को चीरकर दूसरे को कुचलता है सिद्धांतों की कहाँ कोई सुनता है
राम कौन बनता है
मनुष्य मानवता भुल गया है जानवर से बदतर हो गया है बड़ी मछली छोटी को निगलने बेताब है
राम की धरती उजढ़ने की पराकाष्ठ है
सिद्धांतों पर स्वार्थ का राज है
क्यों मनाते हो विजयदशमी कि तुम्हारे अन्दर रावण राज है
शैतानी पर अच्छाई को कहाँ कौन मानता है
राम कौन बनता है
राम कौन बनता है
मर्यादा और वचन के आराध्य है राम
हर परेशानी के साध्य है राम
मनुष्य के मूल पहचान है राम
देवात्व से निकले इन्सान है राम
करम पर आस्था की शान है
किसी वेद से ज्यादा वो एक ज्ञान है
षृष्टी की एक रचना और आदर्श के साक्षात अभिमान है
उनके जैसा कौन बनता है राम कौन बनता है राम कौन बनता है।
संदीप सक्सेना
जबलपुर म प्र