नैतिकता का विद्रूप लबादा
नैतिकता का विद्रूप लबादा
हमारे समाज की ये बहुत बड़ी विडंबना है कि नैतिकता का झूठा आवरण डाल अपने को सभ्य साबित करने की कवायद लोगों में दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। जितना ज्यादा हम अपने आप को नैतिक दिखाने की कोशिश करते हैं, उतने ही ज्यादा हम कृत्रिमता और झूठ का लबादा अपने ऊपर ओढ़ते जाते हैं। यह सत्य है कि हम जन्म से एक जानवर की तरह ही पैदा होते हैं। मनुष्य और जानवरों के बच्चों में बहुत ज्यादा भेद नहीं होता लेकिन हम जैसे- जैसे बड़े होते जाते हैं समाज के बनाए हुए नियमों से अपने आपको बांधते जाते हैं। बहुत सारी उलजुलुल प्रथाओं,रीति – रिवाजों को हम संस्कारों और नैतिकता के नाम पर अपने जीवन में शामिल कर लेते हैं और मनुष्य की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है यथा – प्रेम,करुणा,दया,मानवता,इंसानियत से हम कटते जाते हैं। हम ऊपर से जितना अपने को सभ्य और सुसंस्कृत दिखाने की कोशिश करते हैं, उतने ही अपने बुराइयों पर पर्दा डालने का प्रयास करते हैं और इन्द्रियों के दमन का परिणाम ये होता है कि हम अंदर ही अंदर कुंठित होते जाते हैं। जो अवसाद और निराशापन के रूप में हमारे जीवन में प्रतिफलित होती है। जिसकी वजह से हम अपराध की ओर प्रवृत्त होते जाते हैं। इंटरकास्ट मैरिज की बात हो या समाज में दिनोंदिन बढ़ती पॉर्न की प्रवृत्ति ये सब इसी मानसिक अवसाद का ही परिणाम है। प्रेम किसी भी इंसान का निजी मामला होता है,उसे हम पैसे से कैसे खरीद सकते हैं। ये अंतरात्मा की चीज होती है।
यहां प्रेम से आशय मेरा उस प्रेम से नहीं है जो आजकल लोग हर गली – मुहल्ले में होने का दावा करते हैं और वासना के नाम पर प्रेम का दंभ भर उसकी पवित्रता को मार देते हैं। मैं उस निः स्वार्थ प्रेम की बात कर रही हूं जिसमें आप जिससे प्रेम करो उसके प्रति आपके दिल में मां जैसी ममता हो,पिता की तरह सर पे सुरक्षा की क्षत्रछाया का भाव हो, एक सच्चे गुरु की तरह जीवन में अच्छे रास्ते पर चलने की सीख हो,दोस्त की तरह हर सुख – दुख में साथ देने की बात हो और राधा – कृष्ण की तरह प्रेम में गहराई और पवित्रता हो तथा दूर रहते हुए भी दिल में कभी न बुझने वाली प्रेम की अमिट लौ हो। हम उस प्रेम की बात कर रहे हैं जो जीवन के हर रिश्ते को अपने आप में समेटे हुए हो, सामने वाले की भलाई और उसके जीवन को ऊंचाई देना ही उसके प्रेम का लक्ष्य हो, भले ही वो आपसे कुछ देर के लिए नाराज़ हो जाए। क्यों कि उस प्रेम में वो टुच्ची चीजें न मिलेगी शायद जो वो चाहता हो ,लेकिन हमें इस तरह के प्रेम से डर लगता है, हम इससे दूर भागते हैं क्यों कि ये समर्पण मांगता है, इसमें खुद के मिट जाने का डर होता है और हम मिटने के लिए तैयार नहीं होते, इसीलिए हम अपने जीवन में ऐसा प्रेम ले आते हैं जो स्वार्थ की तराजू पे दोनों तरफ से बिल्कुल नपा – तुला होता है। हम रिश्ता ही अपनी जरूरतों के हिसाब से बिल्कुल तोल- मोल कर बनाते हैं।
माता- पिता द्वारा अपने बच्चों की शादी के लिए लड़का खोजने की बात हो या फिर लड़की चुनने की, सौदा तो दोनों तरफ से होता है और सौदे में नफे- नुकसान का भरपूर खयाल भी दोनों तरफ के लोग बराबर रखते हैं।
एक – दूसरे की जरूरतों को पूरा करने के ‘समझौते’ को ये लोग शादी के पवित्र बंधन का नाम दे देते हैं, और जब इस तरह दो लोग साथ रहने लगते हैं और इनकी जरूरतों में कभी थोड़ी सी भी कमी होती है तो इनका स्वार्थ आपस में टकराता है और फिर शादी का ये पवित्र बंधन कोर्ट कचहरियों की दहलीज पे जाकर या तो दम तोड़ देता है, या फिर समाज को दिखाने के लिए साथ रहकर एक प्रेमहीन जीवन जीने को जिंदगी भर मजबूर होता हैं। इसी का परिणाम होता है कि लोग अपने कामवासना की पूर्ति घर से बाहर और पॉर्न में ढूंढने लगते हैं।
हम शुरू से ही एक तयशुदा जिंदगी जीते हैं। कभी जाति के नाम पर,कभी धर्म के नाम पर तो कभी अपनी झूठी इज्ज़त के नाम पर, जो समाज में सदियों से होता आया है, हम बिना सोचे- समझे उसी रास्ते पर निकल जाते हैं। इस तरह से जीने में कहीं न कहीं हमें सुविधा भी होती है,कौन जाए सही गलत में भेद कर उसे ठीक करने का खतरा मोल लेने ,क्यों कि उसमें बड़ी जान लगती है और हम लोग बड़े कमजोर होते हैं। इसीलिए हम सच से मुंह मोड़ लेते हैं और जिंदगी भर घुट – घुट कर जीने को मजबूर रहते हैं।
मध्यवर्गीय समाज इस तरह की मानसिकता से ज्यादा ग्रसित होता है, ऐसा लगता है कि सारे समाज के इज्जत का ठेका उन्होंने ही अपने कंधे पे उठा रखा है।
यदि किसी नेता या फिर उच्चवर्गीय परिवार में कोई अंतर्जातीय शादी होती है तो यही मध्यवर्गीय परिवार उसे अपनी स्वीकार्यता प्रदान करता है और जब खुद के घर में हो तो आनर किलिंग के नाम पर उसका गला घोंट देता है, उसे घर से बेदखल कर देता है।आखिर मनुष्य तो सभी बराबर होते हैं और सत्य तो एक ही होता है जो सार्वकालिक और सार्वभौमिक होता है ।
जो बात सत्य होगी वो सबके लिए ग्राह्य होगी और जो असत्य होगा वो सबके लिए त्याज्य होगा। फिर क्यों हम इस तरह का कुकृत्य करते हैं।
रिश्ते दिनोंदिन प्रेमहिन और खोखले होते जा रहे हैं लेकिन हम समाज में ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि हमारे रिश्ते बहुत अच्छे चल रहे हैं। हमारे बीच बहुत प्रेम है। जबकि सत्य को साबित करने की जरूरत नहीं पड़ती, सत्य का सूरज तो यूं ही चमकता रहता है।
रही बात आंखों में धूल झोंकने और धोखा देने की तो ये आप खुद सोचो – “आप समाज को धोखा दे रहे हो या अपने आप को”, झूठ और नैतिकता के कृत्रिम आवरण का बोझ आपके कंधे कितने दिनों तक उठा पाएंगे। ये विषय आपके लिए विचारणीय है।
यदि जीवन में सच्चा प्रेम नहीं होता है तो जिंदगी उदास,हताश और खाली सी लगने लगती है और उस खालीपन को लोग वासना से भरने की कोशिश करते हैं, फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती। वो जिंदगी भर कस्तूरी रूपी प्रेम की खोज में व्याकुल हिरण की तरह भटकते हुए अपने आप को लहूलुहान करते रहते हैं।
वो ये समझ ही नहीं पाते कि प्रेम तो उनके भीतर ही विद्यमान है। बस उन्हें इसकी खुशबू को पहचान कर लोगों में बिखेरने की जरूरत है।
अर्चना आनंद
गाजीपुर उत्तर प्रदेश