आज की नारी
धीरे – धीरे उड़ चली,
वो आसमानों की ओर।
हां हौले – हौले उड़ चली,
वो चांद- तारों के छोर।।
जो संकुचित समाज के द्वारा,
सदियों से गई सताई।
वो सरहद पर आज खड़ी हुई,
बन रानी लक्ष्मीबाई ।
जो घर की दहलीजों में,
अपनी सारी उम्र गंवाई।
एक नारी होने की कीमत,
निज खुशियों को बेच चुकाई।
वो पैरों में पंख बांध,
आज छूने चली ऊंचाई।
वायुसेना की अवनी बन,
अंबर में इतिहास रचाई।।
ताई चाची जो कभी कहती थी,
तुम नहीं करो पढ़ाई।
बिटिया तो होती है,
दूजे घर की माल पराई।
वो डी० एम०, सी० एम, पी०एम० बन,
करती सबके हौसलों की आफजाई।
आज हाथ लेखनी थाम,
वो समाज की करती है अगुआई।।
बुलंदी के हर पन्नों पे,
अपने दम खम से नाम लिखाई।
फिर भी पितृसत्ता के जंजीरों को,
वो आज भी काट न पाई।।
गांवों – शहरों की मानसिकता में,
अभी लकीर है भारी खिंचाई।
समाज के कुछ ठेकेदारों ने,
इसमें पैठ है अपनी बनाई।।
नर – नारी के भेदों को,
तुम समाज से दो विदाई।
विकसित भारत के सपनों की,
इसी में है भलाई।।
अर्चना आनंद
गाजीपुर – उत्तर प्रदेश ( भारत )