Search for:

माला ज्ञान

माला ज्ञान

जीते जी न कौर दिया,मरे लगाया भोग।
पूङी हलुआ काग को, भये बावरे लोग।।

पितर दोष से मन डरे, पंडित लिये बुलाय।
काली छाया करम की,श्वेत नहीं हो पाय।।

कुछ लोग नाराज हो गए, काफ़ी कुछ कहा कि अपने धर्म का मजाक उड़ा रहे हैं, ज्यादा आधुनिक बन रहे हैं, पर मन में कुछ प्रश्न निरंतर चलते रहते है,
क्या पितृ दोष केवल मृत होने के बाद ही लगता है,???? जीवित माता पिता के साथ दुर्व्यवहार और उन्हें अनदेखा करना, जीवन के अंतिम पड़ाव पर उनका साथ न देना, उन्हें मानसिक शारीरिक और भावनात्मक रूप से एकाकी कर देना सही है, क्या ये पितृ दोष की श्रेणी में नहीं हैं????
ऐसा नहीं कि हम सनातन धर्म के विरोध में हैं, लेकिन रीत रिवाज,अंधविश्वास जिन्होंने परंपराओं का रूप ले लिया, उन्हें समझना भी बहुत जरूरी है। एक जीवंत उदाहरण अभी पिछले दिन का ही, हमारे घर में काम करने वाले के पिताजी का श्राद्ध था, परंपरा के अनुसार तीसरे वर्ष भव्य रुप से मनाने की प्रथा समाज ने बना दी है, जिसे क्षेत्रीय भाषा में पटा कहते है, उसकी सामर्थ्य थी कि वो सारी पूजा विधि विधान से छोटे रूप में कर सकता था, लेकिन बेटियों को मान्य लोगों को रिश्तेदार आस-पड़ोस सभी को बुलाना था, और सम्मान स्वरूप कुछ न कुछ देना भी था, दूसरी तरफ वेद और शास्त्रों के अनुसार जो क्रिया केवल पिंडदान से पूरी हो सकती है, उसके लिये पंडित जी ने एक लम्बी चौङी सूची बना कर पकङ़ा दी जिसमें पूजापाठ की सामग्री के साथ पंडित जी की गृहस्थी की पूरी व्यवस्था थी, शरीर पर पहनने वाले कपङ़े तक तो ठीक है, पर चप्पल जूते छाता टॉर्च पलंग गद्दा चादर तकिया यहाँ तक कि इस गर्मी के मौसम में भी कंबल या रजाई भी सूची में शामिल, रसोईघर का सामान अलग से,। इतना सबकुछ करने के लिये उसने कर्जा लिया जिसे अगले दो तीन साल तक चुकायेगा,। वो भी उस पिता के लिये जिसे रखने और सेवा के लिये जीते जी दोनों भाई एक-दूसरे की ओर धकेलते रहे, और मरने के बाद पितृ दोष के डर से इतना सब कुछ।
क्या ये सही हो रहा है,
ये तो अभी एक श्राद्ध से जुङा उदाहरण है, पर न जाने कितने ही रीत रिवाज और परंपरायें सदियों से चली आ रही है जिनका धर्म से कुछ लेना देना ही नहीं है,
हमारी संस्कृति में हर त्योहार परंपरायें धर्म के साथ जोङी गयी, जिनके पीछे पारवारिक, सामाजिक, तानबाने को खूबसूरती से निभाने का उद्देश्य था।जिसमें उपयोगी पशुओं और वृक्षों के साथ ही प्रकृति की भागीदारी भी सुनिश्चित की गयी है।
हर त्योहार ऋतुओं के अनुसार बनाये गये, जिसमें क्षेत्रीय उपज सामाजिक सौहार्द और पारिवारिक रिश्तों को महत्ता दी गयी है,
सभी व्रत और त्योहार आपस में भावनात्मक संबधों को मजबूत करने का उद्देश्य लिये हुये है।
भाई बहन का हो, पति पत्नी का हो, सास बहू का हो, ननद भाभी का हो माँ बेटे का हो, कोई भी,।
लेकिन अंत में बात वही आ जाती है, कि क्या जिस रूप में जिस उद्देश्य के लिये ये बनाये गये थे उनको वैसे ही निर्वहन कर पा रहे है,
क्या दिखावे के लिये या स्वार्थ के लिये या फिर किसी अंधविश्वास में उलझकर डर के कारण सब किये जा रहे है।
ईश्वर आपका मन देखता है, कर्म देखता है,
और वही ऊपर तक जाता है।
सुविचार शुद्ध सोच के साथ जो कर्म होते है बस वही धर्म है, वही पूजा है, बाकी भगवान को तो हर व्यक्ति अपनी श्रद्धानुसार मानता भी है पूजता भी है।
स्वार्थ और अंधविश्वास की मोटी परत को हटाकर समाज रिश्ते और परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियों में जागरुकता लाने की आवश्यता है। ऐसा हमें लगता है।

माला अज्ञात…..

Leave A Comment

All fields marked with an asterisk (*) are required