शुद्ध अन्त:करण और साधक की परम स्थिति
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधि गच्छति।
यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय से लिया गया है। दूसरे अध्याय का ये 64वां श्लोक है, जो हमें शुद्ध हुए अन्त:करण और साधक की परम स्थिति की ओर इशारा करता है। ऐसा साधक जिसके वश में अपना अन्त:करण हो, उसके संपूर्ण दु:खों का नाश प्रसन्नता के छाने पर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति ही कर्मयोगी कहलाता है। उसकी सब ओर से दृष्टि हट जाती है और वह अनासक्त भाव से जितेन्द्रिय होकर परमात्मा में लीन हो जाती है।
इन्द्रिय विषय में विचरता, रागादि से जो मुक्त हो।
आत्मा वश में, लहै अति हर्ष, बुद्धीयुक्त हो।।
इस प्रकार भक्तियोग के साधन में भी भगवान के शरण हो जाने पर मन-इन्द्रियों के द्वारा कर्म करते हुए भी भगवत्कृपा से कल्याण हो जाता है।
श्रीकृष्ण ने गीता के 18वें अध्याय के 56वें श्लोक में कहा है कि-
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:।
मत्प्रसादाद वाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।। (गीता- 18/56)
मेरे परायण हुआ पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से स्नातक अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार ज्ञानयोग के साधन में मन-इन्द्रियों के द्वारा विषयों में बिचरण करता हुआ भी साधक निर्लिप्त हो परम पद प्राप्त कर लेता है।
प्राप्त हो जाता मुझे वह, रुप मेरा प्राप्त करता।
अविच्छिन्न सुख लह, शिवा मेरे, नहीं कुछ निज द्रगन लखता।।
निष्काम हो मेरा परायण, कर्मयोगी कर्म करता।
मेरी कृपा से सनातन, अविनाशी पद वह परम लहता।।
इससे सिद्ध हो जाता है कि परमात्मा की प्राप्ति हेतु तीन बातें बहुत ही आवश्यक हैं-
1- इन्द्रियों और मन को अपने-अपने विषयों से रोकना अर्थात उनका विषयों से सम्बन्ध-विच्छेद करना।
2- इन्द्रियों और मन को अपने वश में करना।
3- मन-इन्द्रियों के विषयरुप इस संसार से तीव्र वैराग्य करना।
इनमें इन्द्रियों और मन का विषयों से सम्बन्ध-विच्छेद करने की अपेक्षा उनको अपने वश में करना विशेष लाभदायक है, क्योंकि मन को वश में किए बिना, योग, स्व और परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि-
असंयतात्मा योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तु मुपायत:।। (गीता- 6/12)
अर्थात जिसका मन वश में नहीं है, ऐसे पुरुष द्बारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।” और इसी ओर श्रीकृष्ण ने उक्त विषयगत श्लोक में इशारा किया है।
योग है दुष्प्राप्य, यदि मन के रहे आधीन नर।
प्राप्त हो दुर्जेय, दृढ़ता रहे, मन स्वाधीन नर।।
इन्द्रियों का नियन्त्रण मन के नियन्त्रण के अन्तर्गत ही है, क्योंकि भगवान ने पहले इन्द्रियों को वश में करने के पश्चात मन को वश में करने की बात कही गीता के अध्याय- 3 के श्लोक- 41-43 में कही है। अवलोकन करें-
इन्द्रियवश हनि काम, यदि तू न करे तव भूल है।
तन से परे इन्द्रिय, परे मन, बुद्धि आत्म अमूल्य है।।
आत्मज्ञानी बन करो, वश मन जितेन्द्रिय वीर हो।
महाबाहो! शक्ति को निज समझ शुचि कामारि हो।।
मन-इन्द्रियों को वश में करने की अपेक्षा संसार से वैराग्य करना और भी उत्तम है, क्योंकि वैराग्य से ही मन वश में होता है, फिर इन्द्रियाँ वश में सहज ही हो जाती हैं और उनका विषयों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
वैराग्य के बिना कर्मयोग, भक्तियोग, अष्टांगयोग, ज्ञानयोग किसी भी साधन की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
भगवान ने गीता में वैराग्य यानि आसक्ति के अभाव से ही कर्मयोग की सिद्धि बतायी है-
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्प संन्यासी योगारुढ़स्त दोच्यते।। (गीता- 6/4)
कर्म-इन्द्रिय से रहित होता मनुज जिस काल सुनु।
संकल्प योगी पुरुष योगारुढ़ हो उस काल गुनु।।
जो जितेन्द्रिय करे मन्मथ, स्वयं का वो मित्र है।
जो रहे मन-इन्द्रियों के वश, वो निज का शत्रु है।।(6/6)
स्वाधीन ऐसे पुरुष के रमते हृदयं वासुदेव हैं।
सच्चिदानन्द घन हैं जो, परमात्मा नहिं भेव है।। (6/7)
ज्ञान-विज्ञानादि से है तृप्त, अंतस शुद्ध जिनका।
जितेन्द्रिय समदृष्टि योगी मुक्त, मैं हूँ रुप उनका।। (6/8)
इसी प्रकार भक्तियोग के साधन में भगवान ने आसक्ति के अभावरुप वैराग्य की आवश्यकता बतायी है।
अश्वत्थमेनं सुविरुढ़ मूलम संगशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा।।
इस अहंता, ममता और वासनारुप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररुपी पीपल वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरुप शस्त्र द्वारा काटकर भगवान के शरण हो उन्हें खोजना चाहिए।
निर्मानमोहा जितसंग दोषा:। (गीता- 16/5)
जिनका मान और मोह नष्ट हो गया हो, जिन्होंने आसक्ति रुप दोष को जीत लिया हो, वे सच्चे ज्ञानीजन हैं।
मद्भक्त: संगवर्जित:। (11/55)
जो मेरा भक्त और आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्राप्त होता है।
इस प्रकार गीता में और श्रीमद्भागवत महापुराण में जगह-जगह अनासक्त भाव और जितेन्द्रिय होने की बात बड़ी दृढ़ता के साथ कहकर वैराग्य को प्राथमिकता दी गयी है, यदि हम इस पर चलेंगे तो निष्काम भक्तियोग से सहज ही ईश्वर को पा सकते हैं।
समयाभाव के कारण इस विषय पर बहुत कुछ लिखना चाहता था। हमारे उपनिषद, पुराणों और रामायणों तथा विभिन्न धर्म ग्रन्थों में बहुत सी बातें अनासक्त भाव, वैराग्य, निष्काम भावपूर्वक कर्तव्यकर्म और भक्तियोग पर कही गयी हैं। शेष फिर कभी…।
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)
